अब ईश्वरविषय को कहते हैं ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (देवासः) विद्वान् जन (वृत्रहन्तमम्) मेघ के अत्यन्त नाश करनेवाले और (अग्रियम्) आगे प्रकट हुए (अग्निम्) अग्नि को (इन्धते) प्रकाशित करते हैं और (येन) जिन (वाजिना) वेग वा विज्ञान से (आभृता) चारों ओर से धारण किये गये (वसूनि) धनों को प्रकाशित करते हैं और (रक्षांसि) दुष्ट जनों को (तृळ्हा) हिंसित करते हैं, वैसे ही दोषों का नाश करके परमात्मा को प्रकाशित करते हैं, इस प्रकार आप लोग भी करो ॥४८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यज्ञ करनेवाले जन यज्ञ में वेदी पर अग्नि को प्रज्वलित करके हवन की सामग्री छोड़ के संसार का उपकार करते हैं, वैसे ही योग से युक्त संन्यासी जन परमात्मा को सब के हृदय मे अच्छे प्रकार प्रकाशित करके दोषों का नाश करते हैं ॥४८॥ इस सूक्त में अग्नि, विद्वान् और ईश्वर के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इस अध्याय में अग्नि, विश्वेदेव, सूर्य्य, इन्द्र, वैश्वानर, वायु, यज्ञ, राजधर्म्म, विद्वान् और ईश्वर के गुणवर्णन करने से इस अध्याय के अर्थ की इससे पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य श्रीमद्विरजानन्दसरस्वती स्वामी जी के शिष्य परम विद्वान् श्रीमद्दयानन्द सरस्वती स्वामी से रचे गये ऋग्वेदभाष्य में चतुर्थ अष्टक में पाँचवाँ अध्याय, तीसवाँ वर्ग और छठे मण्डल में सोलहवाँ सूक्त भी समाप्त हुआ ॥