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भ॒रद्वा॑जाय स॒प्रथः॒ शर्म॑ यच्छ सहन्त्य। अग्ने॒ वरे॑ण्यं॒ वसु॑ ॥३३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bharadvājāya saprathaḥ śarma yaccha sahantya | agne vareṇyaṁ vasu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

भ॒रत्ऽवा॑जाय। स॒ऽप्रथः॑। शर्म॑। य॒च्छ॒। स॒ह॒न्त्य॒। अग्ने॑। वरे॑ण्यम्। वसु॑ ॥३३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:16» मन्त्र:33 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:33


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहन्त्य) शान्त जनों में हुए (अग्ने) दाता जन ! आप (भरद्वाजाय) विज्ञान और अन्न को धारण किये हुए जन के लिये (सप्रथः) प्रसिद्धि के सहित वर्त्तमान (शर्म) गृह को और (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य (वसु) द्रव्य को (यच्छ) दीजिये ॥३३॥
भावार्थभाषाः - हे श्रेष्ठ गृहस्थ ! आप सदा ही सुपात्र धार्मिकजन के लिये दान दीजिये ॥३३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे सहन्त्यग्ने ! त्वं भरद्वाजाय सप्रथः शर्म्म वरेण्यं वसु च यच्छ ॥३३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (भरद्वाजाय) धृतविज्ञानाऽन्नाय (सप्रथः) प्रख्यात्या सह वर्त्तमानः (शर्म) गृहम् (यच्छ) देहि (सहन्त्य) सहन्तेषु शान्तेषु भव (अग्ने) दातः (वरेण्यम्) स्वीकर्त्तुमर्हम् (वसु) द्रव्यम् ॥३३॥
भावार्थभाषाः - हे सद्गृहस्थ ! त्वं सदैव सुपात्राय धार्मिकाय जनाय दानं देहि ॥३३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे सद्गृहस्था ! तू सदैव सुपात्र धार्मिक लोकांना दान दे. ॥ ३३ ॥