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व॒यमु॑ त्वा गृहपते जनाना॒मग्ने॒ अक॑र्म स॒मिधा॑ बृ॒हन्त॑म्। अ॒स्थू॒रि नो॒ गार्ह॑पत्यानि सन्तु ति॒ग्मेन॑ न॒स्तेज॑सा॒ सं शि॑शाधि ॥१९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vayam u tvā gṛhapate janānām agne akarma samidhā bṛhantam | asthūri no gārhapatyāni santu tigmena nas tejasā saṁ śiśādhi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व॒यम्। ऊँ॒ इति॑। त्वा॒। गृ॒ह॒ऽप॒ते॒। ज॒ना॒ना॒म्। अग्ने॑। अक॑र्म। स॒म्ऽइधा॑। बृ॒हन्त॑म्। अ॒स्थू॒रि। नः॒। गार्ह॑पत्यानि। स॒न्तु॒। ति॒ग्मेन॑। नः॒। तेज॑सा। सम्। शि॒शा॒धि॒ ॥१९॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:15» मन्त्र:19 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:20» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थों को कैसा प्रयत्न करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (गृहपते) गृहस्थों के पालन करनेवाले (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान (वयम्) हम लोग (जनानाम्) मनुष्यों के मध्य में (त्वा) आपका आश्रय करके (समिधा) प्रदीपक साधन से अग्नि को (बृहन्तम्) बड़ा (अकर्म्म) करें (उ) और (नः) हम लोगों का (अस्थूरि) चलनेवाला वाहन और (गार्हपत्यानि) गृहपति से संयुक्त कर्म्म जिस प्रकार से सिद्ध (सन्तु) हों उस प्रकार से (तिग्मेन) तीव्र (तेजसा) तेज से आप (नः) हम लोगों को (सम्, शिशाधि) उत्तम प्रकार शिक्षा दीजिये ॥१९॥
भावार्थभाषाः - हे गृहस्थजनो ! आप लोग आलस्य का त्याग करके सृष्टिक्रम से विद्या की उन्नति करके अन्य विद्यार्थियों को विद्या ग्रहण कराइये, जिससे सब सुख बढ़े ॥१९॥ इस सूक्त में अग्नि, विद्वान्, ईश्वर और गृहस्थ के कार्य्यों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पन्द्रहवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग और छठे मण्डल का पहिला अनुवाक समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्गृहस्थैः कथं प्रयतितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे गृहपतेऽग्ने ! वयं जनानां मध्ये त्वाऽऽश्रित्य समिधाऽग्निं बृहन्तमकर्म्म। उ नोऽस्थूरि गार्हपत्यानि च यथा सिद्धानि सन्तु तथा तिग्मेन तेजसा त्वं नः सं शिशाधि ॥१९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) (उ) (त्वा) त्वाम् (गृहपते) गृहस्य पालक (जनानाम्) मनुष्याणां मध्ये (अग्ने) अग्निवद्वर्त्तमान (अकर्म्म) कुर्य्याम (समिधा) प्रदीपकेन साधनेन (बृहन्तम्) महान्तम् (अस्थूरि) अस्थिरं यानम् (नः) अस्माकम् (गार्हपत्यानि) गृहपतिना संयुक्तानि कर्म्माणि (सन्तु) (तिग्मेन) तीव्रेण (नः) अस्मान् (तेजसा) (सम्) (शिशाधि) सम्यक्तया शिक्षय ॥१९॥
भावार्थभाषाः - हे गृहस्था जना ! यूयमालस्यं विहाय सृष्टिक्रमेण विद्योन्नतिं कृत्वाऽन्यान् विद्यार्थिनो विद्यां ग्राहयत येन सर्वाणि सुखानि वर्धेरन्निति ॥१९॥ अत्राऽग्निविद्वदीश्वरगृहस्थकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चदशं सूक्तं विंशो वर्गः षष्ठे मण्डले प्रथमोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे गृहस्थांनो! तुम्ही आळस सोडून सृष्टिक्रमाने विद्येची उन्नती करा. इतर विद्यार्थ्यांना विद्या ग्रहण करवा. ज्यामुळे सुख वाढेल. ॥ १९ ॥