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जनि॑ष्वा दे॒ववी॑तये स॒र्वता॑ता स्व॒स्तये॑। आ दे॒वान् व॑क्ष्य॒मृताँ॑ ऋता॒वृधो॑ य॒ज्ञं दे॒वेषु॑ पिस्पृशः ॥१८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

janiṣvā devavītaye sarvatātā svastaye | ā devān vakṣy amṛtām̐ ṛtāvṛdho yajñaṁ deveṣu pispṛśaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

जनि॑ष्व। दे॒वऽवी॑तये। स॒र्वऽता॑ता। स्व॒स्तये॑। आ। दे॒वान्। व॒क्षि॒। अ॒मृता॑न्। ऋ॒त॒ऽवृधः॑। य॒ज्ञम्। दे॒वेषु॑। पि॒स्पृ॒शः॒ ॥१८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:15» मन्त्र:18 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को सृष्टि से कौन-कौन उपकार ग्रहण करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! आप (देववीतये) श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति के लिये और (स्वस्तये) सुख की प्राप्ति के लिये (सर्वताता) सम्पूर्ण सुख के करनेवाले शिल्प=कारीगरीरूप यज्ञ में (अमृतान्) नाशरहित (ऋतावृधः) सत्यव्यवहार के बढ़ानेवाले (देवान्) श्रेष्ठ गुणों वा भोगों को (आ, वक्षि) प्राप्त कराइये और (देवेषु) विद्वानों में (यज्ञम्) सुख के देनेवाले यज्ञ का (पिस्पृशः) स्पर्श कराइये, इससे सुखों को (जनिष्वा) प्रकट कीजिये ॥१८॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को चाहिये कि सृष्टि में वर्त्तमान पदार्थों से विद्या के द्वारा श्रेष्ठ भोगों को प्राप्त होकर अपने लिये अनेक प्रकार के सुख को उत्पन्न करें ॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः सृष्टेः कः क उपकारो ग्रहीतव्य इत्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वंस्त्वं देववीतये स्वस्तये सर्वताताऽमृतानृतावृधो देवानाऽऽवक्षि देवेषु यज्ञं पिस्पृशोऽनेन सुखानि जनिष्वा ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जनिष्वा) जनय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (देववीतये) दिव्यगुणप्राप्तये (सर्वताता) सर्वसुखकरे शिल्पमये यज्ञे (स्वस्तये) सुखलब्धये (आ) (देवान्) दिव्यान् गुणान् भोगान् वा (वक्षि) वह (अमृतान्) नाशरहितान् (ऋतावृधः) सत्यव्यवहारवर्धकान् (यज्ञम्) सुखप्रदम् (देवेषु) विद्वत्सु (पिस्पृशः) स्पर्शय ॥१८॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिः सृष्टिस्थपदार्थेभ्यो विद्यया दिव्यान् भोगान् प्राप्य स्वार्थं बहुविधं सुखं जननीयम् ॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांनी विद्येद्वारे सृष्टीतील पदार्थांपासून श्रेष्ठ भोग प्राप्त करावेत व स्वतःसाठी विविध प्रकारचे सुख प्राप्त करावे. ॥ १८ ॥