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यज॑स्व होतरिषि॒तो यजी॑या॒नग्ने॒ बाधो॑ म॒रुतां॒ न प्रयु॑क्ति। आ नो॑ मि॒त्रावरु॑णा॒ नास॑त्या॒ द्यावा॑ हो॒त्राय॑ पृथि॒वी व॑वृत्याः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yajasva hotar iṣito yajīyān agne bādho marutāṁ na prayukti | ā no mitrāvaruṇā nāsatyā dyāvā hotrāya pṛthivī vavṛtyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यज॑स्व। हो॒तः॒। इ॒षि॒तः। यजी॑यान्। अग्ने॑। बाधः॑। म॒रुता॑म्। न। प्रऽयु॑क्ति। आ। नः॒। मि॒त्रावरु॑णा। नास॑त्या। द्यावा॑। हो॒त्राय॑। पृ॒थि॒वी इति॑। व॒वृ॒त्याः॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:11» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले ग्यारवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) दाता और (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी विद्वज्जन ! (यजीयान्) अतिशय यज्ञ करनेवाले (इषितः) प्रेरणा लिये गये जैसे (नासत्या) असत्य आचरण से रहित (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के समान अध्यापक और उपदेशक जन (होत्राय) ग्रहण करने और देनेवाले के लिये (द्यावा) अन्तरिक्ष और (पृथिवी) पृथिवी मिलाते हैं, वैसे (नः) हम लोगों को (प्रयुक्ति) प्रयोग करते हैं पदार्थों का जिसमें वह कर्म्म (आ) सब प्रकार से (ववृत्याः) प्रवृत्त कराइये और (मरुताम्) वायु के सदृश मनुष्यों की (बाधः) रुकावट (न) जैसे वैसे वर्तमान दिन को निवृत्त कर (यजस्व) उत्तम प्रकार मिलाइये ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो विद्वान् जन प्राण और उदान वायु के सदृश प्रिय और पुरुषार्थी होते हैं, वे सब के लिये सुख प्राप्त कराने योग्य होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे होतरग्ने ! यजीयानिषितस्त्वं यथा नासत्या मित्रावरुणा होत्राय द्यावापृथिवी सङ्गमयतस्तथा नोऽस्मान् प्रयुक्ति आ ववृत्या मरुतां बाधो न वर्त्तमानं दिनं निवर्त्य यजस्व ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यजस्व) सङ्गमय (होतः) दातः (इषितः) प्रेरितः (यजीयान्) अतिशयेन यष्टा (अग्ने) अग्निरिव विद्वन् (बाधः) निरोधः (मरुताम्) वायूनामिव मनुष्याणाम् (न) इव (प्रयुक्ति) प्रयुञ्जते यस्मिंस्तत् कर्म्म (आ) (नः) अस्मान् (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविवाऽध्यापकोपदेशकौ (नासत्या) अविद्यमानासत्याचरणौ (द्यावा) (होत्राय) आदानाय दानाय वा (पृथिवी) (ववृत्याः) वर्त्तयेः ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये विद्वांसः प्राणोदानवत् प्रियाः पुरुषार्थिनश्च भवन्ति ते सर्वार्थं सुखं सङ्गमयितुमर्हन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान प्राण व उदान वायूप्रमाणे प्रिय व पुरुषार्थाr असतात ते सर्वांना सुख देण्यायोग्य असतात. ॥ १ ॥