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उ॒त स्म॑ दुर्गृभीयसे पु॒त्रो न ह्वा॒र्याणा॑म्। पु॒रू यो दग्धासि॒ वनाग्ने॑ प॒शुर्न यव॑से ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta sma durgṛbhīyase putro na hvāryāṇām | purū yo dagdhāsi vanāgne paśur na yavase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। स्म॒। दुः॒ऽगृ॒भी॒य॒से॒। पु॒त्रः। न। ह्वा॒र्या॑णा॑म्। पु॒रु। यः। दग्धा॑। असि॑। वना॑। अग्ने॑। प॒शुः। न। यव॑से ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:9» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:1» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों के गुणों को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी विद्वन् ! (ह्वार्याणाम्) कुटिलों के (पुत्रः) पुत्र के (नः) सदृश (पुरू) बहुत को (दुर्गृभीयसे) दुःख से ग्रहण करते (स्म) ही हो (यः) जो अग्नि (वना) वनों को (दग्धा) जलानेवाले के सदृश (उत) भी (यवसे) खाने योग्य घास के लिये (पशुः) पशु के (न) सदृश है, उससे पदार्थों को जाननेवाले (असि) हो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो पदार्थविद्या के ग्रहण के लिये पुत्र और गौ के सदृश वर्त्तमान है, वही अग्नि आदि की विद्या को जान सकता है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्गुणानाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! विद्वन् ! ह्वार्य्याणां पुत्रो न पुरू दुर्गृभीयसे स्म योऽग्निर्वना दग्धेवोत यवसे पशुर्नाऽसि तस्मात् पदार्थविदसि ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) (स्म) (दुर्गृभीयसे) दुःखेन गृह्णासि (पुत्रः) (न) इव (ह्वार्याणाम्) कुटिलानाम् (पुरू) बहु। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (यः) (दग्धा) (असि) (वना) वनानि (अग्ने) अग्निः (पशुः) (न) इव (यवसे) अद्याय घासाय ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यो हि पदार्थविद्याग्रहणाय पुत्रवद्धेनुवच्च वर्त्तते स एवाग्न्यादिविद्यां ज्ञातुमर्हति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो पदार्थविद्या ग्रहण करण्यासाठी पुत्र व गाईप्रमाणे (आज्ञाधारक बनून) वागतो तोच अग्नी इत्यादीची विद्या जाणू शकतो. ॥ ४ ॥