प्र वो॑ म॒हे म॒तयो॑ यन्तु॒ विष्ण॑वे म॒रुत्व॑ते गिरि॒जा ए॑व॒याम॑रुत्। प्र शर्धा॑य॒ प्रय॑ज्यवे सुखा॒दये॑ त॒वसे॑ भ॒न्ददि॑ष्टये॒ धुनि॑व्रताय॒ शव॑से ॥१॥
pra vo mahe matayo yantu viṣṇave marutvate girijā evayāmarut | pra śardhāya prayajyave sukhādaye tavase bhandadiṣṭaye dhunivratāya śavase ||
प्र। वः॒। म॒हे। म॒तयः॑। य॒न्तु॒। विष्ण॑वे। म॒रुत्व॑ते। गि॒रि॒ऽजाः। ए॒व॒या॒म॑रुत्। प्र। शर्धा॑य। प्रऽय॑ज्यवे। सु॒ऽखा॒दये॑। त॒वसे॑। भ॒न्दत्ऽइ॑ष्टये। धुनि॑ऽव्रताय। शव॑से ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब नव ऋचावाले सत्तासीवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को कैसे क्या प्राप्त होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मनुष्यान् कथं किं प्राप्नोतीत्याह ॥
हे मनुष्या ! यथा मरुत्वते महे विष्णवे विद्युद्रूपाग्नये गिरिजा यन्ति तथा वो मतयः प्र यन्तु यथैवयामरुच्छर्धाय प्रयज्यवे सुखादये तवसे भन्ददिष्टये धुनिव्रताय शवसे प्र भवति तथा यूयमप्येतस्मै प्र भवत ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात वायू, विद्वान व परमेश्वराच्या उपासनेचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.