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यु॒ञ्जते॒ मन॑ उ॒त यु॑ञ्जते॒ धियो॒ विप्रा॒ विप्र॑स्य बृह॒तो वि॑प॒श्चितः॑। वि होत्रा॑ दधे वयुना॒विदेक॒ इन्म॒ही दे॒वस्य॑ सवि॒तुः परि॑ष्टुतिः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuñjate mana uta yuñjate dhiyo viprā viprasya bṛhato vipaścitaḥ | vi hotrā dadhe vayunāvid eka in mahī devasya savituḥ pariṣṭutiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒ञ्जते॑। मनः॑। उ॒त। यु॒ञ्ज॒ते॒। धियः॑। विप्राः॑। विप्र॑स्य। बृ॒ह॒तः। वि॒पः॒ऽचितः॑। वि। होत्राः॑। द॒धे॒। व॒यु॒न॒ऽवित्। एकः॑। इत्। म॒ही। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। परि॑ऽस्तुतिः ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:81» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले इक्यासीवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में योगीजन क्या करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (होत्राः) लेने वा देनेवाले (विप्राः) बुद्धिमान् योगीजन (विप्रस्य) विशेष कर के व्याप्त होनेवाले (बृहतः) बड़े (विपश्चितः) अनन्त विद्यावान् (सवितुः) सम्पूर्ण जगत् के उत्पन्न करनेवाले (देवस्य) सम्पूर्ण जगत् के प्रकाशक परमात्मा के मध्य में (मनः) मननस्वरूप मन को (युञ्जते) युक्त करते (उत) और (धियः) बुद्धियों को (युञ्जते) युक्त करते हैं और जो (वयुनावित्) प्रज्ञानों को जाननेवाला (एकः) सहायरहित अकेला (इत्) ही संपूर्ण जगत् को (वि, दधे) रचता और जिसकी (मही) बड़ी आदर करने योग्य (परिष्टुतिः) सब और व्याप्त स्तुति है, वैसे उस में आप लोग भी चित्त को धारण करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - अनेक विद्याबृंहित, बुद्धि आदि पदार्थों के अधिष्ठान, जगदीश्वर के बीच जो मन और बुद्धि को निरन्तर स्थापन करते हैं, वे समस्त ऐहिक और पारलौकिक सुख को प्राप्त होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ योगिनः किं कुर्वन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या! यथा होत्रा विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः सवितुर्देवस्य परमात्मनो मध्ये मनो युञ्जत उत धियो युञ्जते यो वयुनाविदेक इदेव सर्वं जगद्वि दधे यस्य मही परिष्टुतिरस्ति तथा तस्मिन्यूयमपि चित्तं धत्त ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युञ्जते) समादधाति (मनः) मननात्मकम् (उत) अपि (युञ्जते) (धियः) प्रज्ञाः (विप्राः) मेधाविनो योगिनः (विप्रस्य) विशेषेण प्राति व्याप्नोति तस्य (बृहतः) महतः (विपश्चितः) अनन्तविद्यस्य (वि) (होत्राः) आदातारो दातारो वा (दधे) दधाति (वयुनावित्) यो वुयनानि प्रज्ञानानि वेत्ति। अत्रान्येषामपीत्युपधाया दीर्घः। (एकः) अद्वितीयोऽसहायः (इत्) एव (मही) महती पूज्या (देवस्य) सर्वस्य जगतः प्रकाशकस्य (सवितुः) सकलजगदुत्पादकस्य (परिष्टुतिः) परितो व्याप्ता चासौ स्तुतिश्च ॥१॥
भावार्थभाषाः - अनेकविद्याबृंहितस्य बुद्ध्यादिपदार्थाधिष्ठानस्य जगदीश्वरस्य मध्ये ये मनो बुद्धिं वा निदधति ते सर्वमैहिकं पारलौकिकं सुखं चाप्नुवन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सत्यव्यवहारात प्रेरणा करणाऱ्या ईश्वराच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थार्ची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - अनेक महान विद्या व बुद्धीचे अधिष्ठान असलेल्या जगदीश्वरामध्ये जे मन व बुद्धीला निरंतर जोडतात ते संपूर्ण ऐहिक व पारलौकिक सुख प्राप्त करतात. ॥ १ ॥