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अ॒भि ये त्वा॑ विभावरि॒ स्तोमै॑र्गृ॒णन्ति॒ वह्न॑यः। म॒घैर्म॑घोनि सु॒श्रियो॒ दाम॑न्वन्तः सुरा॒तयः॒ सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhi ye tvā vibhāvari stomair gṛṇanti vahnayaḥ | maghair maghoni suśriyo dāmanvantaḥ surātayaḥ sujāte aśvasūnṛte ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भि। ये। त्वा॒। वि॒भा॒ऽव॒रि॒। स्तोमैः॑। गृ॒णन्ति॑। वह्न॑यः। म॒घैः। म॒घो॒नि॒। सु॒ऽश्रियः॑। दाम॑न्ऽवन्तः। सुऽरा॒तयः॑। सुऽजा॑ते। अश्व॑ऽसूनृते ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:79» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:21» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघोनि) बहुत धन से युक्त (सुजाते) उत्तम विद्या से प्रकट हुई (अश्वसूनृते) बड़े ज्ञान से युक्त और (विभावरि) प्रकाशवती प्रातर्वेला के सदृश वर्त्तमान विद्यायुक्त स्त्री ! (ये) जो विद्वान् जन (सुश्रियः) सुन्दर लक्ष्मी जिनकी ऐसे (दामन्वन्तः) बहुत दान क्रिया से युक्त (सुरातयः) सुन्दर दान की इच्छा जिनकी वे (वह्नयः) पहुँचानेवाले अग्नियों के समान वर्त्तमान विद्वान् जन (मघैः) धनों से और (स्तोमैः) स्तोत्रों से (त्वा) आप को (अभि) सन्मुख (गृणन्ति) स्तुति करते हैं, वे आप से सत्कार करने योग्य हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वही प्रशंसित स्त्री है, जो पिता और पति के कुल में श्रेष्ठ आचरण से पिता और पति के कुल को प्रकाशित करे ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मघोनि सुजातेऽश्वसूनृते विभावरीव विदुषि स्त्रि ! ये सुश्रियो दामन्वन्तः सुरातयो वह्नयो विद्वांसो मघैः स्तोमैस्त्वाऽभि गृणन्ति ते त्वया सत्कर्त्तव्याः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभि) आभिमुख्ये (ये) विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (विभावरि) प्रकाशयुक्तोषर्वद्वर्त्तमाने (स्तोमैः) (गृणन्ति) स्तुवन्ति (वह्नयः) वोढारोऽग्नय इव वर्त्तमानाः (मघैः) धनैः (मघोनि) बहुधनयुक्ते (सुश्रियः) शोभना लक्ष्म्यो येषान्ते (दामन्वन्तः) बहुदानक्रियायुक्ताः (सुरातयः) शोभना रातिर्दानेच्छा येषान्ते (सुजाते) (अश्वसूनृते) ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथाऽग्नय उषसः कर्त्तारः सन्ति तथैव शिक्षका विद्याप्राप्तिकर्त्तारः स्युः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी उषेचा कर्ता असतो तशी शिक्षकांनी विद्या प्राप्त करावी. ॥ ४ ॥