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या सु॑नी॒थे शौ॑चद्र॒थे व्यौच्छो॑ दुहितर्दिवः। सा व्यु॑च्छ॒ सही॑यसि स॒त्यश्र॑वसि वा॒य्ये सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yā sunīthe śaucadrathe vy auccho duhitar divaḥ | sā vy uccha sahīyasi satyaśravasi vāyye sujāte aśvasūnṛte ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

या। सु॒ऽनी॒थे। शौ॒च॒त्ऽर॒थे। वि। औच्छः॑। दु॒हि॒तः॒। दि॒वः॒। सा। वि। उ॒च्छ॒। सही॑यसि। स॒त्यऽश्र॑वसि। वा॒य्ये। सुऽजा॑ते। अश्व॑ऽसूनृते ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:79» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्वसूनृते) बड़े अन्न से युक्त (सुजाते) उत्तम संस्कारों से उत्पन्न (वाय्ये) जनाने योग्य (सहीयसि) अतिशय सहनेवाली (दिवः) सूर्य्य की (दुहितः) पुत्री के समान वर्त्तमान स्त्री ! (या) जो तू (शौचद्रथे) पवित्र रथ में (सुनीथे) श्रेष्ठ न्याय में (सत्यश्रवसि) सत्य का श्रवण जिसमें उसमें (वि, औच्छः) विशेष वसाती है (सा) वह तू हम लोगों को सुख में (वि, उच्छ) विशेष बसावे ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे प्रातर्वेला सब को सुख में वसाती है, वैसे ही श्रेष्ठ स्त्री आनन्दयुक्त गृहाश्रम में सबको वसाती है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अश्वसूनृते सुजाते वाय्ये सहीयसि दिवो दुहितरिव वर्त्तमाने स्त्रि ! या त्वं शौचद्रथे सुनीथे सत्यश्रवसि व्यौच्छः सा त्वमस्मान् सुखे व्युच्छ ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (या) (सुनीथे) शोभने न्याये (शौचद्रथे) पवित्रे रथे (वि) (औच्छः) विवासयति (दुहितः) पुत्रीव (दिवः) सूर्य्यस्य (सा) (वि) (उच्छ) (सहीयसि) यातिशयेन सोढ्रि (सत्यश्रवसि) सत्यस्य श्रवो यस्मिन् (वाय्ये) ज्ञापनीये (सुजाते) शोभनैः संस्कारैरुत्पन्ने (अश्वसूनृते) महदन्नयुक्ते ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथोषाः सर्वान् सुखे वासयति तथैव साध्वी स्त्र्यानन्दयुक्ते गृहाश्रमे सर्वान् निवासयति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी प्रातःकाळची वेळ सर्वांना सुखी करते तसेच श्रेष्ठ स्त्री आनंदयुक्त गृहस्थाश्रमात सर्वांना सुखी करते. ॥ २ ॥ े