वांछित मन्त्र चुनें

प्रा॒त॒र्यावा॑णा प्रथ॒मा य॑जध्वं पु॒रा गृध्रा॒दर॑रुषः पिबातः। प्रा॒तर्हि य॒ज्ञम॒श्विना॑ द॒धाते॒ प्र शं॑सन्ति क॒वयः॑ पूर्व॒भाजः॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prātaryāvāṇā prathamā yajadhvam purā gṛdhrād araruṣaḥ pibātaḥ | prātar hi yajñam aśvinā dadhāte pra śaṁsanti kavayaḥ pūrvabhājaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रा॒तः॒ऽयावा॑ना। प्र॒थ॒मा। य॒ज॒ध्व॒म्। पु॒रा। गृध्रा॑त्। अर॑रुषः। पि॒बा॒तः॒। प्रा॒तः। हि। य॒ज्ञम्। अ॒श्विना॑। द॒धाते॒ इति॑। प्र। शं॒स॒न्ति॒। क॒वयः॑। पू॒र्व॒ऽआजः॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:77» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले सतहत्तरवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जैसे (पुरा) पहिले (प्रातर्यावाणा) जो सूर्य्य और उषा प्रातर्वेला में चलते हैं उन (प्रथमा) प्रथम और विस्तीर्ण स्वरूपवालों को और (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जनों को (यजध्वम्) मिलाओ और (अररुषः) नहीं देनेवाले की (गृध्रात्) अभिकाङ्क्षा से रस को (पिबातः) पीते और (प्रातः हि) प्रातःकाल ही (यज्ञम्) राज्यपालन को (दधाते) धारण करते हैं उनकी (पूर्वभाजः) पूर्वजनों के आदर करनेवाले (कवयः) बुद्धिमान् जन (प्र, शंसन्ति) प्रशंसा करते हैं, वैसे उनको आप लोग जानो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जो राजा और उपदेशक जन दिन में शयनरहित और जिनकी विद्वान् जन स्तुति करते हैं, उनके सत्सङ्ग से आप लोग काङ्क्षासिद्धि करो ॥१॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयं यथा पुरा प्रातर्यावाणा प्रथमाऽश्विना यजध्वं तथा तावररुषो गृध्राद् रसं पिबातः प्रातर्हि यज्ञं दधाते तौ पूर्वभाजः कवयः प्र शंसन्ति तथा तौ यूयं विजानीत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रातर्यावाणा) यौ सूर्य्योषसौ प्रातर्यातस्तौ (प्रथमा) आदिमौ विस्तीर्णस्वरूपौ (यजध्वम्) सङ्गच्छध्वम् (पुरा) पुरस्तात् (गृध्रात्) अभिकाङ्क्षया (अररुषः) अदातुः (पिबातः) पिबतः (प्रातः) (हि) (यज्ञम्) राज्यपालनम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (दधाते) (प्र) (शंसन्ति) प्रशंसन्ति (कवयः) मेधाविनः (पूर्वभाजः) ये पूर्वान् भजन्ति ते ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यौ राजोपदेशकौ दिवास्वापरहितौ तथा यौ विद्वांसः तत्सङ्गेन यूयं काङ्क्षासिद्धिं कुरुत ॥१॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी, जल, विद्वान व राजाच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे राजा व उपदेशक दिवसा झोपत नाहीत व ज्यांची विद्वान लोक स्तुती करतात त्यांच्या उत्तम संगतीने तुम्ही आकांक्षापूर्ती करा. ॥ १ ॥