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इ॒मा ब्रह्मा॑णि॒ वर्ध॑ना॒श्विभ्यां॑ सन्तु॒ शंत॑मा। या तक्षा॑म॒ रथाँ॑इ॒वावो॑चाम बृ॒हन्नमः॑ ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imā brahmāṇi vardhanāśvibhyāṁ santu śaṁtamā | yā takṣāma rathām̐ ivāvocāma bṛhan namaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मा। ब्रह्मा॑णि। वर्ध॑ना। अ॒श्विऽभ्या॑म्। स॒न्तु॒। शम्ऽत॑मा। या। तक्षा॑म। रथा॑न्ऽइव। अवो॑चाम। बृ॒हत्। नमः॑ ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:73» मन्त्र:10 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:12» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (अश्विभ्याम्) अन्तरिक्ष और पृथिवी से (या) जो (इमा) ये (वर्धना) वृद्धि को प्राप्त होते जिनसे उन (शन्तमा) अत्यन्त सुखकारक (ब्रह्माणि) धनों या अन्नों का (रथानिव) रथों के समान (तक्षाम) आच्छादन करें, वे आप लोगों के लिये सुखकारक (सन्तु) हों उनसे (बृहत्) बड़े (नमः) सत्कार का हम (अवोचाम) उपदेश करें ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! आप जैसे वस्त्र आदि से वाहनों को उढ़ाकर शृङ्गारयुक्त करते हैं, वैसे ही धन और धान्यों को उत्तम प्रकार ग्रहण करके उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त करें और शुद्ध अन्न के भोग से बड़े विज्ञान को प्राप्त होकर अन्य जनों को भी इस का उपदेश करें ॥१०॥ इस सूक्त में अन्तरिक्ष पृथिवी और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तिहत्तरवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! अश्विभ्यां येमा वर्धना शन्तमा ब्रह्माणि रथानिव तक्षाम तानि युष्मभ्यं सुखकराणि सन्तु तैर्बृहन्नमो वयमवोचाम ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमा) इमानि (ब्रह्माणि) धनान्यन्नानि वा (वर्धना) वर्धन्ते तानि (अश्विभ्याम्) द्यावापृथिवीभ्याम् (सन्तु) (शन्तमा) अतिशयेन सुखकराणि (या) यानि (तक्षाम) संवृणुयामाऽऽच्छादयाम स्वीकुर्य्याम (रथानिव) (अवोचाम) उपदिशेम (बृहत्) महत् (नमः) सत्कारम् ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! भवन्तो यथा वस्त्रादिना रथानावृत्य शृङ्गारयन्ति तथैव धनधान्यानि संगृह्य सुसंस्कृतानि कुर्य्युः शुद्धान्नभोगेन महद्विज्ञानं प्राप्यान्यानप्येतदुपपदिशेयुः ॥१०॥ अत्राश्विविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिसप्ततितमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! तुम्ही रथ वस्त्र इत्यादींनी सजवता तसे धनधान्याचा संग्रह करून, संस्कारित करून शुद्ध अन्नभोग करून महाविज्ञान प्राप्त करून इतरांनाही त्याचा उपदेश करा. ॥ १० ॥