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व्र॒तेन॑ स्थो ध्रु॒वक्षे॑मा॒ धर्म॑णा यात॒यज्ज॑ना। नि ब॒र्हिषि॑ सदतं॒ सोम॑पीतये ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vratena stho dhruvakṣemā dharmaṇā yātayajjanā | ni barhiṣi sadataṁ somapītaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व्र॒तेन॑। स्थः॒। ध्रु॒वऽक्षे॑मा। धर्म॑णा। या॒त॒यत्ऽज॑ना। नि। ब॒र्हिषि॑। स॒द॒त॒म्। सोम॑ऽपीतये ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:72» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ध्रुवक्षेमा) निश्चित रक्षण और (यातयज्जना) यत्न कराते हुए जनोंवाले मनुष्यो ! जो तुम (धर्म्मणा) धर्म्म के और (व्रतेन) धर्म्मयुक्त कर्म्म के साथ वर्त्तमान (स्थः) होते हो वे दोनों आप (सोमपीतये) सोम पीने के लिये (बर्हिषि) उत्तम व्यवहार में (नि, सदतम्) उपस्थित हूजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य निश्चित धर्म्म व्रत और शील को धारण करते हैं, वे दृढ़ सुख से युक्त होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे ध्रुवक्षेमा यातयज्जना ! यौ युवां धर्म्मणा व्रतेन स्थस्तौ सोमपीतये बर्हिषि निषदतम् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (व्रतेन) धर्मयुक्तेन कर्म्मणा (स्थः) भवथः (ध्रुवक्षेमा) ध्रुवं क्षेमं रक्षणं ययोस्तौ (धर्म्मणा) धर्म्मेण सह वर्त्तमानौ (यातयज्जना) यातयन्तो जना ययोस्तौ (नि) (बर्हिषि) उत्तमे व्यवहारे (सदतम्) तिष्ठतम् (सोमपीतये) सोमस्य पानाय ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या निश्चितधर्मव्रतशीलानि धरन्ति ते स्थिरसुखा जायन्ते ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे निश्चितपणे धर्माचे व्रत व शील संपादित करतात ती दृढ सुख प्राप्त करतात. ॥ २ ॥