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स स्मा॑ कृणोति के॒तुमा नक्तं॑ चिद्दू॒र आ स॒ते। पा॒व॒को यद्वन॒स्पती॒न्प्र स्मा॑ मि॒नात्य॒जरः॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa smā kṛṇoti ketum ā naktaṁ cid dūra ā sate | pāvako yad vanaspatīn pra smā mināty ajaraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। स्म॒। कृ॒णो॒ति॒। के॒तुम्। आ। नक्त॑म्। चि॒त्। दू॒रे। आ। स॒ते। पा॒व॒कः। यत्। वन॒स्पती॑न्। प्र। स्म॒। मि॒नाति॑। अ॒जरः॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:7» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जो (अजरः) नाश से रहित (पावकः) पवित्र करनेवाला (वनस्पतीन्) वनों के पालनेवालों का (स्मा) ही (आ, कृणोति) अनुकरण करता (नक्तम्) रात्रि में (चित्) भी (दूरे) दूर देश में (सते) सत्पुरुष के लिये (केतुम्) बुद्धि देता और दूर स्थान में वर्त्तमान हुआ (स्मा) ही दुष्ट और दोषों का (प्र, आ, मिनाति) अच्छे प्रकार नाश करता है (सः) वह सर्वत्र सत्कृत होता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! विद्वान् दूर भी वर्त्तमान हुए रात्रि दिन अग्नि वा वनस्पतियों के सदृश परोपकारी होते हैं, वे संसार के भूषण अंलकार होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यद्योऽजरः पावको वनस्पतीन् स्माऽऽकृणोति नक्तं चिद् दूरे सते केतुं प्रयच्छति दूरे सन् स्मा दुष्टान् दोषान् प्रा मिनाति स सर्वत्र सत्कृतो जायते ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (स्मा) एव (कृणोति) (केतुम्) प्रज्ञाम् (आ) (नक्तम्) रात्रौ (चित्) (दूरे) (आ) (सते) सत्पुरुषाय (पावकः) पवित्रकरः (यत्) यः (वनस्पतीन्) वनानां पालकान् (प्र) (स्मा) अत्रोभयत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (मिनाति) हिनस्ति (अजरः) नाशरहितः ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये विद्वांसो दूरेऽपि स्थिता अहर्निशमग्निवद्वनस्पतिवच्च परोपकारिणो जायन्ते त एव जगद्भूषणा भवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जरी विद्वान दूर असतील तरी रात्र व दिवस, वनस्पती व अग्नी यांच्याप्रमाणे परोपकारी असतात. ते जगाचे भूषण ठरतात. ॥ ४ ॥