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अमा॑देषां भि॒यसा॒ भूमि॑रेजति॒ नौर्न पू॒र्णा क्ष॑रति॒ व्यथि॑र्य॒ती। दू॒रे॒दृशो॒ ये चि॒तय॑न्त॒ एम॑भिर॒न्तर्म॒हे वि॒दथे॑ येतिरे॒ नरः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

amād eṣām bhiyasā bhūmir ejati naur na pūrṇā kṣarati vyathir yatī | dūredṛśo ye citayanta emabhir antar mahe vidathe yetire naraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अमा॑त्। ए॒षा॒म्। भि॒यसा॑। भूमिः॑। ए॒ज॒ति॒। नौः। न। पू॒र्णा। क्ष॒र॒ति॒। व्यथिः॑। य॒ती। दू॒रेऽदृशः॑। ये। चि॒तय॑न्ते। एम॑ऽभिः। अ॒न्तः। म॒हे। वि॒दथे॑। ये॒ति॒रे॒। नरः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:59» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब वायुगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरः) नायक मनुष्यो ! जो (भूमिः) पृथिवी (पूर्णा) पूर्ण (नौः) बड़े नौका के (न) सदृश (भियसा) भय से (व्यथिः) पीड़ित होनेवाली (यती) जाती हुई स्त्री के तुल्य (एजति) काँपती है और (एषाम्) इन वायु और अग्नि आदि के (अमात्) गृह से (क्षरति) वर्षाती है उसको (ये) जो (एमभिः) प्राप्त करानेवाले गुणों से इसके (अन्तः) मध्य में (दूरेदृशः) जो दूर देखे जाते वा दूर देखनेवाले (महे) बड़े के लिये (चितयन्ते) उत्तमता से समझाते हैं और (विदथे) संग्राम वा विज्ञानयुक्त व्यवहार में (येतिरे) प्रयत्न करते हैं, वे ही सब को सुखी करने के योग्य होते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे शूरवीर जनों के समीप से डरनेवाले जन भागते हैं, वैसे ही वायु और सूर्य से भूमि काँपती और चलती है और जैसे पदार्थों से पूर्ण नौका अग्नि आदि के योग से समुद्र के पार को शीघ्र जाती है, वैसे विद्या के पार मनुष्य जावें और जैसे वीर संग्राम में प्रयत्न करते हैं, वैसे ही अन्य मनुष्यों को प्रयत्न करना चाहिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वायुगुणानाह ॥

अन्वय:

हे नरो नायका मनुष्या ! या भूमिः पूर्णा नौर्न भियसा व्यथिर्यती स्त्रीवैजति एषाममात् क्षरति तां य एमभिरस्यान्तर्मध्ये दूरेदृशो महे चितयन्ते विदथे येतिरे त एव सर्वान् सुखयितुमर्हन्ति ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अमात्) गृहात् (एषाम्) वाय्वग्न्यादीनाम् (भियसा) भयेन (भूमिः) पृथिवी (एजति) कम्पते (नौः) बृहती नौका (न) इव (पूर्णा)) (क्षरति) वर्षति (व्यथिः) या व्यथते सा (यती) गच्छन्ती (दूरेदृशः) ये दूरे दृश्यन्ते पश्यन्ति वा (ये) (चितयन्ते) प्रज्ञापयन्ति (एमभिः) प्रापकैर्गुणैः (अन्तः) मध्ये (महे) महते (विदथे) सङ्ग्रामे विज्ञानमये व्यवहारे वा (येतिरे) यतन्ते (नरः) नेतारो मनुष्याः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा शूराणां समीपाद् भीरवः पलायन्ते तथैव वायुसूर्य्याभ्यां भूमिः कम्पते चलति च यथा पदार्थैः पूर्णा नौरग्न्यादियोगेन समुद्रपारं सद्यो गच्छति तथा विद्यापारं मनुष्या गच्छन्तु यथा वीराः सङ्ग्रामे प्रयतन्ते तथैवेतरैर्मनुष्यैः प्रयतितव्यम् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे शूर वीराजवळ जाण्यास भित्री माणसे घाबरतात तसे वायू व सूर्यामुळे भूमी कंपायमान होते. जशी पदार्थांनी भरलेली नौका अग्नी इत्यादीद्वारे तात्काळ समुद्रापार जाते तसे विद्येच्या पार माणसांनी पोचावे. जसे वीर पुरुष युद्धात प्रयत्नशील असतात तसे इतर माणसांनीही प्रयत्नशील असावे. ॥ २ ॥