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वि सूर्यो॑ अ॒मतिं॒ न श्रियं॑ सा॒दोर्वाद्गवां॑ मा॒ता जा॑न॒ती गा॑त्। धन्व॑र्णसो न॒द्यः१॒॑ खादो॑अर्णाः॒ स्थूणे॑व॒ सुमि॑ता दृंहत॒ द्यौः ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi sūryo amatiṁ na śriyaṁ sād orvād gavām mātā jānatī gāt | dhanvarṇaso nadyaḥ khādoarṇāḥ sthūṇeva sumitā dṛṁhata dyauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। सूर्यः॑। अ॒मति॑म्। न। श्रिय॑म्। सा॒त्। आ। ऊ॒र्वात्। गवा॑म्। मा॒ता॒। जा॒न॒ती। गा॒त्। धन्व॑ऽअर्णसः। न॒द्यः॑। खादः॑ऽअर्णाः। स्थूणा॑ऽइव। सुऽमि॑ता। दृं॒ह॒त॒। द्यौः ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:45» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:26» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (द्यौः) कामना करता हुआ (सुमिता) उत्तम प्रकार किया प्रमाण जिनका (स्थूणेव) स्तम्भ के समान विद्या आदि सद्गुणों को (दृंहत) बढ़ाता या धारण करता तथा (खादोअर्णाः) भक्षण करने योग्य अन्न और जल जिनमें और (धन्वर्णसः) स्थल में जल जिनका ऐसी (नद्यः) शब्द करनेवाली नदियों के सदृश वा (जानती) जानती हुई (माता) माता के सदृश शिष्यों और उपदेश करने योग्यों को (गात्) प्राप्त होता है और (सूर्यः) सूर्य्य (अमतिम्) रूप के (न) सदृश (श्रियम्) लक्ष्मी का (वि, सात्) विशेष करके विभाग करता है (गवाम्) किरणों के (ऊर्वात्) बहुत रूप से ऐश्वर्य्य को (आ) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है, वही सब को सुखी करने को योग्य होवे ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सूर्य्य के सदृश विद्या माता के सदृश कृपा, नदी के सदृश उपकार और खम्भ के सदृश धारणा करते हैं, वे ही श्रीमान् और सदा सुखी होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

यो द्यौः सुमिता स्थूणेव विद्यादिसद्गुणान् दृंहत खादोअर्णा धन्वर्णसो नद्य इव जानती मातेव शिष्यानुपदेश्यान् गात् सूर्य्योऽमतिं न श्रियं वि षाद् गवामूर्वादैश्वर्यमा गात् स एव सर्वान् सुखयितुमर्हेत् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) (सूर्य्यः) (अमतिम्) रूपम् (न) इव (श्रियम्) (सात्) विभजति (आ) (ऊर्वात्) बहुरूपात् (गवाम्) किरणानाम् (माता) जननी (जानती) (गात्) अगाद् गच्छति (धन्वर्णसः) धन्वे स्थलेऽर्णांसि यासां ताः (नद्यः) या नदन्ति ताः (खादोअर्णाः) खादो भक्षणीयान्यन्नानि वा यान्यर्णांसि यासु ताः (स्थूणेव) स्थूणावत् (सुमिता) सुष्ठुकृतप्रमाणानि (दृंहत) वर्धयति धरति वा (द्यौः) कामयमानः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र [उपमा]वाचकलुप्तोपमालङ्कारौ । ये सूर्यवद्विद्यां जननीवत्कृपां नदीवदुपकारं स्तम्भवद्धारणं कुर्वन्ति त एव श्रीमन्तः सदा सुखिनो भवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे सूर्याप्रमाणे विद्या, मातेप्रमाणे कृपा, नदीप्रमाणे उपकार व खांबाप्रमाणे स्थिर असतात तेच श्रीमंत व सुखी होतात. ॥ २ ॥