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या॒दृगे॒व ददृ॑शे ता॒दृगु॑च्यते॒ सं छा॒यया॑ दधिरे सि॒ध्रया॒प्स्वा। म॒हीम॒स्मभ्य॑मुरु॒षामु॒रु ज्रयो॑ बृ॒हत्सु॒वीर॒मन॑पच्युतं॒ सहः॑ ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yādṛg eva dadṛśe tādṛg ucyate saṁ chāyayā dadhire sidhrayāpsv ā | mahīm asmabhyam uruṣām uru jrayo bṛhat suvīram anapacyutaṁ sahaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

या॒दृक्। ए॒व। ददृ॑शे। ता॒दृक्। उ॒च्य॒ते॒। सम्। छा॒यया॑। द॒धि॒रे॒। सि॒ध्रया॑। अ॒प॒ऽसु। आ। म॒हीम्। अ॒स्मभ्य॑म्। उरु॒ऽसाम्। उ॒रु। ज्रयः॑। बृ॒हत्। सु॒ऽवीर॑म्। अन॑पऽच्युतम्। सहः॑ ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:44» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (ज्रयः) वेगवाले (सिध्रया) मङ्गलस्वरूप (छायया) छाया से (अप्सु) जलों वा प्राणों में (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (उरुषाम्) बहुतों के विभाग करनेवाले को (महीम्) बड़ी वाणी और (उरु) बहुत (बृहत्) बड़े (सुवीरम्) सुन्दर वीर पुरुष जिससे उस (अनपच्युतम्) नाश से रहित (सहः) बल को (सम्, आ, दधिरे) उत्तम प्रकार धारण करते हैं और जिन लोगों से (यादृक्) जैसा (ददृशे) देखा जाता है (तादृक्) वैसा (एव) ही (उच्यते) कहा जाता है, वे हम लोगों से निरन्तर सत्कार करने योग्य हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो अन्य जनों में विद्या के बल और धन के संचय को स्थापित करते हैं और जिनसे जैसा आत्मा में वर्त्तमान है, वैसा मन में और जैसा मन में वैसा वाणी से कहा जाता है, वे ही यथार्थवक्ता जानने योग्य हैं ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

ये ज्रयः सिध्रया छाययाप्स्वस्मभ्यमुरुषां महीमुरु बृहत्सुवीरमनपच्युतं सहः समा दधिरे यैर्यादृग्ददृशे तादृगेवोच्यते तेऽस्माभिः सततं सत्कर्त्तव्याः ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यादृक्) (एव) (ददृशे) दृश्यते (तादृक्) (उच्यते) (सम्) (छायया) (दधिरे) दधति (सिध्रया) मङ्गलया (अप्सु) जलेषु प्राणेषु वा (आ) (महीम्) महतीं वाचम् (अस्मभ्यम्) (उरुषाम्) यो बहून् सनति विभजति तम् (उरु) बहु (ज्रयः) वेगवन्तः (बृहत्) महत् (सुवीरम्) शोभना वीरा यस्मात्तम् (अनपच्युतम्) ह्रासरहितम् (सहः) बलम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - येऽन्येषु विद्याबलं धनसञ्चयञ्च स्थापयन्ति यैर्यादृशमात्मनि वर्त्तते तादृङ् मनसि यादृङ् मनसि तादृग्वाचा भाष्यते त एव आप्ता विज्ञेयाः ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे इतरांना विद्या, बल, धन देतात व ज्यांच्या आत्म्यामध्ये जसे तसे मनामध्ये व जसे मनामध्ये तसेच वाणीमध्ये असते त्यांनाच आप्त म्हणतात. ॥ ६ ॥