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दश॒ क्षिपो॑ युञ्जते बा॒हू अद्रिं॒ सोम॑स्य॒ या श॑मि॒तारा॑ सु॒हस्ता॑। मध्वो॒ रसं॑ सु॒गभ॑स्तिर्गिरि॒ष्ठां चनि॑श्चदद्दुदुहे शु॒क्रमं॒शुः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

daśa kṣipo yuñjate bāhū adriṁ somasya yā śamitārā suhastā | madhvo rasaṁ sugabhastir giriṣṭhāṁ caniścadad duduhe śukram aṁśuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दश॒॑। क्षिपः॑। यु॒ञ्ज॒ते॒। बा॒हू इति॑। अद्रि॑म्। सोम॑स्य। या। श॒मि॒तारा॑। सु॒ऽहस्ता॑। मध्वः॑। रस॑म्। सु॒ऽगभ॑स्तिः। गि॒रि॒ऽस्थाम्। चनि॑श्चदत्। दु॒दु॒हे॒। शु॒क्रम्। अं॒शुः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:43» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:20» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (सुगभस्तिः) सुन्दर किरणें जिसकी वह सूर्य्य और (अंशुः) किरण (चनिश्चदत्) प्रसन्न करता है और (मध्वः) मधुर आदि गुणों से युक्त (सोमस्य) ऐश्वर्य्य के सम्बन्धी (गिरिष्ठाम्) मेघ में वर्त्तमान (अद्रिम्) मेघ को (रसम्) रस को और (शुक्रम्) जल को (दुदुहे) दुहता है, वैसे जो (दश) दश संख्यावाली (क्षिपः) प्रेरणा करते हैं जिनसे वे अङ्गुलियाँ और (या) जो (शमितारा) शान्ति से यज्ञकर्म्म के करनेवाले और (सुहस्ता) अच्छे हाथोंवाले (बाहू) भुजाओं को (युञ्जते) युक्त करते हैं, उनसे धर्मसम्बन्धी कार्य्यों को करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य आदि प्राणी अङ्गुलियों से पदार्थों को ग्रहण करते और त्यागते हैं, वैसे ही सूर्य्य किरणों से भूमि के नीचे से जल को ग्रहण करके फेंकता अर्थात् वृष्टि करता है, ऐसा जानो ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा सुगभस्तिरंशुश्चनिश्चदत् सन् मध्वः सोमस्य गिरिष्ठामद्रिं रसं शुक्रं दुदुहे तथा या दश क्षिपो या शमितारा सुहस्ता बाहू युञ्जते ताभिर्धर्म्याणि कृत्यानि कुरुत ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दश) दशसंख्याकाः (क्षिपः) क्षिपन्ति प्रेरयन्ति याभिस्ता अङ्गुलयः। क्षिप इत्यङ्गुलिनामसु पठितम्। (निघं०२.५) (युञ्जते) (बाहू) भुजौ (अद्रिम्) मेघम् (सोमस्य) ऐश्वर्य्यस्य (या) यौ (शमितारा) शान्त्या यज्ञकर्मकर्त्तारौ (सुहस्ता) शौभनौ हस्तौ ययोस्तौ (मध्वः) मधुरादिगुणयुक्तस्य (रसम्) (सुगभस्तिः) शोभना गभस्तयः किरणा यस्य सूर्यस्य सः। (गिरिष्ठाम्) गिरौ मेघे स्थितम्। गिरिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (चनिश्चदत्) आह्लादयति (दुदुहे) दोग्धि (शुक्रम्) उदकम् (अंशुः) किरणः ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा मनुष्यादयः प्राणिनोऽङ्गुलिभिः पदार्थान् गृह्णन्ति त्यजन्ति तथैव सूर्य्यः किरणैर्भूमेस्तलाज्जलं गृहीत्वा प्रक्षिपतीति वेद्यम् ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी माणसे बोटांनी पदार्थ घेतात व टाकतात तसा सूर्य किरणांद्वारे भूमीखालून जल घेतो व फेकतो. अर्थात, वृष्टी करतो. हे जाणा. ॥ ४ ॥