अ॒स्माक॑मग्ने अध्व॒रं जु॑षस्व॒ सह॑सः सूनो त्रिषधस्थ ह॒व्यम्। व॒यं दे॒वेषु॑ सु॒कृतः॑ स्याम॒ शर्म॑णा नस्त्रि॒वरू॑थेन पाहि ॥८॥
asmākam agne adhvaraṁ juṣasva sahasaḥ sūno triṣadhastha havyam | vayaṁ deveṣu sukṛtaḥ syāma śarmaṇā nas trivarūthena pāhi ||
अ॒स्माक॑म्। अ॒ग्ने॒। अ॒ध्व॒रम्। जु॒ष॒स्व॒। सह॑सः। सू॒नो॒ इति॑। त्रि॒ऽस॒ध॒स्थ॒। ह॒व्यम्। व॒यम्। दे॒वेषु॑। सु॒ऽकृतः॑। स्या॒म॒। शर्म॑णा। नः॒। त्रि॒ऽवरू॑थेन। पा॒हि॒ ॥८॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
हे सहसः सूनो त्रिषधस्थाग्ने ! त्वमस्माकं हव्यमध्वरं जुषस्व त्रिवरूथेन शर्मणा सह नोऽस्मान्त्सततं पाहि यतो वयं देवेषु सुकृतः स्याम ॥८॥