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व॒यं ते॑ अग्न उ॒क्थैर्वि॑धेम व॒यं ह॒व्यैः पा॑वक भद्रशोचे। अ॒स्मे र॒यिं वि॒श्ववा॑रं॒ समि॑न्वा॒स्मे विश्वा॑नि॒ द्रवि॑णानि धेहि ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vayaṁ te agna ukthair vidhema vayaṁ havyaiḥ pāvaka bhadraśoce | asme rayiṁ viśvavāraṁ sam invāsme viśvāni draviṇāni dhehi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व॒यम्। ते॒। अ॒ग्ने॒। उ॒क्थैः। वि॒धे॒म॒। व॒यम्। ह॒व्यैः। पा॒व॒क॒। भ॒द्र॒ऽशो॒चे॒। अ॒स्मे इति॑। र॒यिम्। वि॒श्वऽवा॑रम्। सम्। इ॒न्व॒। अ॒स्मे इति॑। विश्वा॑नि। द्रवि॑णानि। धे॒हि॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:4» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजप्रजाविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पावक) पवित्र (भद्रशोचे) कल्याण के प्रकाश करनेवाले (अग्ने) बिजुली के सदृश वर्त्तमान विद्वान् राजन् ! जैसे (वयम्) हम लोग जिन (ते) आपके (उक्थैः) प्रशंसित वचनों से (विश्वानि) सम्पूर्ण (द्रविणानि) यशों को (विधेम) सिद्ध करें वैसे (अस्मे) हम लोगों के लिये इनको (सम्, धेहि) अत्यन्त धारण कीजिये और जैसे (वयम्) हम लोग (हव्यैः) देने और लेने योग्यों से आपकी (विश्ववारम्) विवरपर्यन्त अर्थात् अति उत्तम पदार्थपर्यन्त पदार्थों से युक्त (रयिम्) लक्ष्मी को प्राप्त करावें, वैसे आप (अस्मे) हम लोगों के लिये इसको (इन्व) व्याप्त कीजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रजा और मन्त्रीजन राजलक्ष्मी को बढ़ावें, वैसे ही राजा इन लोगों के लिये धन बढ़ावे। इस प्रकार न्याय से पिता और पुत्र के सदृश वर्त्ताव करके यशस्वी होवें ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजप्रजाविषयमाह ॥

अन्वय:

हे पावक भद्रशोचेऽग्ने विद्वन् राजन् ! यथा वयं यस्य त उक्थैर्विश्वानि द्रविणानि विधेम तथाऽस्म एतानि सन् धेहि यथा वयं हव्यैस्ते विश्ववारं रयिं प्रापयेम तथा त्वमस्म एतमिन्व ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) (ते) तव (अग्ने) विद्युदिव वर्त्तमान (उक्थैः) प्रशंसितैर्वचनैः (विधेम) कुर्याम (वयम्) (हव्यैः) दातुमादातुमर्हैः (पावक) पवित्र (भद्रशोचे) कल्याणप्रकाशक (अस्मे) अस्मभ्यम् (रयिम्) श्रियम् (विश्ववारम्) आविवरपदार्थयुक्ताम् (सम्) (इन्व) व्याप्नुहि (अस्मे) अस्मभ्यम् (विश्वानि) अखिलानि (द्रविणानि) यशांसि (धेहि) ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रजाऽमात्यजना राजश्रियं वर्धयेयुस्तथैव राजा एभ्यो धनं वर्धयेदेवं न्यायेन पितृपुत्रवद्वर्त्तित्वा कीर्त्तिमन्तो भवन्तु ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. प्रजा व मंत्री राजलक्ष्मी वाढवितात. तसेच राजाने त्यांच्यासाठी धनवृद्धी करावी. याप्रमाणे न्यायाने पिता व पुत्राप्रमाणे वागून कीर्तिमान व्हावे. ॥ ७ ॥