यदि॑न्द्र चित्र मे॒हनास्ति॒ त्वादा॑तमद्रिवः। राध॒स्तन्नो॑ विदद्वस उभयाह॒स्त्या भ॑र ॥१॥
yad indra citra mehanāsti tvādātam adrivaḥ | rādhas tan no vidadvasa ubhayāhasty ā bhara ||
यत्। इ॒न्द्र॒। चि॒त्र॒। मे॒हना॑। अस्ति॑। त्वाऽदा॑तम्। अ॒द्रि॒ऽवः॒। राधः॑। तत्। नः॒। वि॒द॒द्व॒सो॒ इति॑ विदत्ऽवसो। उ॒भ॒या॒ह॒स्ति। आ। भ॒र॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले उनचालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्र के गुणों को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथेन्द्रगुणानाह ॥
हे अद्रिवो विदद्वसो चित्रेन्द्र ! यत्त्वादातं राधो मेहनेवास्ति तदुभयाहस्ति न आ भर ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इन्द्र, राजा, प्रजा व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.