वांछित मन्त्र चुनें

व॒धूरि॒यं पति॑मि॒च्छन्त्ये॑ति॒ य ईं॒ वहा॑ते॒ महि॑षीमिषि॒राम्। आस्य॑ श्रवस्या॒द्रथ॒ आ च॑ घोषात्पु॒रू स॒हस्रा॒ परि॑ वर्तयाते ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vadhūr iyam patim icchanty eti ya īṁ vahāte mahiṣīm iṣirām | āsya śravasyād ratha ā ca ghoṣāt purū sahasrā pari vartayāte ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व॒धूः। इ॒यम्। पति॑म्। इ॒च्छन्ती॑। ए॒ति॒। यः। ई॒म्। वहा॑ते। महि॑षीम्। इ॒षि॒राम्। आ। अ॒स्य॒। श्र॒व॒स्या॒त्। रथः॑। आ। च॒। घो॒षा॒त्। पु॒रु। स॒हस्रा॑। परि॑। व॒र्त॒या॒ते॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:37» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब युवावस्थाविवाहविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे (इयम्) यह (पतिम्) पति की (इच्छन्ती) इच्छा करती हुई (वधूः) स्त्री प्रिय स्वामी को (एति) प्राप्त होती है और (यः) जो स्त्री को प्राप्त होनेवाला प्रिय (इषिराम्) प्राप्त होती हुई (महिषीम्) बहुत श्रेष्ठ गुणवाली स्त्री को प्राप्त होता है और जैसे वे दोनों सम्पूर्ण गृहकृत्य को (वहाते) चलावें वैसे (ईम्) जल वा सम्पूर्ण पदार्थों को अग्नि से चलाया गया (रथः) वाहन चलाता है वह (अस्य) इसके (आ, श्रवस्यात्) आत्मा के श्रवण की इच्छा करनेवाले से (घोषात् च) और शब्दद्वारा से (पुरू) बहुतों और (सहस्रा) हजारों के (परि) सब ओर (आ, वर्त्तयाते) अच्छे प्रकार वर्त्तमान है ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे किया ब्रह्मचर्य्य जिन्होंने ऐसे स्त्री और पुरुष परस्पर पति और स्त्रीभाव की इच्छा करते हैं तथा परस्पर प्रसन्न प्रिय होकर संयुक्त हुए गृहाश्रम के व्यवहार को उत्तम रीति से पूर्ण करते हैं, वैसे ही जल और अग्नि संप्रयुक्त किये गये सम्पूर्ण व्यवहार को सिद्ध करते हैं और बहुत कोशों से भी मुहूर्त्तमात्र से वाहन आदि को शीघ्र पहुँचाते हैं, यह सब को जानना चाहिये ॥३॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ युवावस्थाविवाहविषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथेयं पतिमिच्छन्ती वधूर्हृद्यं स्वामिनमेति यो हि वधूयुः प्रियामिषिरां महिषीमेति यथा तौ सर्वं गृहकृत्यं वहाते तथेमग्निं संप्रयुक्तो रथो वाहयति सोऽस्याश्रवस्याद् घोषाच्च पुरू सहस्रा पर्या वर्त्तयाते ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वधूः) भार्य्या (इयम्) (पतिम्) (इच्छन्ती) (एति) प्राप्नोति (यः) (ईम्) उदकं सर्वान् पदार्थान् वा (वहाते) वहेताम् (महिषीम्) महाशुभगुणाम् (इषिराम्) प्राप्नुवन्तीम् (आ) (अस्य) (श्रवस्यात्) य आत्मनः श्रव इच्छति तस्मात् (रथः) (आ) (च) (घोषात्) शब्दद्वारया (पुरू) बहूनि (सहस्रा) सहस्राणि (परि) सर्वतः (वर्त्तयाते) वर्त्तयेत। लेट् प्रथमैकवचन आडागमे णिजन्तस्य वर्त्तेः प्रयोगः ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कृतब्रह्मचर्य्यो स्त्रीपुरुषौ परस्परं पतिभार्ये इच्छतः परस्परं संप्रीतौ हृद्यौ संयुक्तौ सन्तौ गृहाश्रमव्यवहारमलंकुरुतस्तथैव जलाग्नी संप्रयुक्तौ सर्वं व्यवहारं साधयतो बहुभ्यः क्रोशेभ्य आमुहूर्त्तादपि रथादिकं सद्यो गमयत इति सर्वैर्वेद्यम् ॥३॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थर् - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ब्रह्मचारी स्त्री-पुरुष परस्पर पती-पत्नी बनण्याची इच्छा प्रकट करून एकमेकांचे प्रिय बनून संयुक्तपणे गृहस्थाश्रम स्वीकारतात. तसेच जल व अग्नी संयुक्तपणे सर्व व्यवहार चालवितात व दूरदूरपर्यंत तातडीने वाहने नेतात हे सर्वांनी जाणावे. ॥ ३ ॥