सं यज्जनौ॑ सु॒धनौ॑ वि॒श्वश॑र्धसा॒ववे॒दिन्द्रो॑ म॒घवा॒ गोषु॑ शु॒भ्रिषु॑। युजं॒ ह्य१॒॑न्यमकृ॑त प्रवेप॒न्युदीं॒ गव्यं॑ सृजते॒ सत्व॑भि॒र्धुनिः॑ ॥८॥
saṁ yaj janau sudhanau viśvaśardhasāv aved indro maghavā goṣu śubhriṣu | yujaṁ hy anyam akṛta pravepany ud īṁ gavyaṁ sṛjate satvabhir dhuniḥ ||
सम्। यत्। जनौ॑। सु॒ऽधनौ॑। वि॒श्वऽश॑र्धसौ। अवे॑त्। इन्द्रः॑। म॒घऽवा॑। गोषु॑। शु॒भ्रिषु॑। युज॑म्। हि। अ॒न्यम्। अकृ॑त। प्र॒ऽवे॒प॒नी। उत्। ई॒म्। गव्य॑म्। सृ॒ज॒ते॒। सत्त्व॑ऽभिः। धुनिः॑ ॥८॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर पूर्वोक्त विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः पूर्वोक्तविषयमाह ॥
हे मनुष्या ! यो धुनिर्मघवेन्द्रो यत्सुधनौ विश्वशर्धसौ जनौ समवेच्छुभ्रिषु गोषु हि युजमन्यमकृत प्रवेपनी सती गव्यमीं सत्त्वभिरुत्सृजते स सुखकरो जायते ॥८॥