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सूर॑श्चि॒द्रथं॒ परि॑तक्म्यायां॒ पूर्वं॑ कर॒दुप॑रं जूजु॒वांस॑म्। भर॑च्च॒क्रमेत॑शः॒ सं रि॑णाति पु॒रो दध॑त्सनिष्यति॒ क्रतुं॑ नः ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sūraś cid ratham paritakmyāyām pūrvaṁ karad uparaṁ jūjuvāṁsam | bharac cakram etaśaḥ saṁ riṇāti puro dadhat saniṣyati kratuṁ naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सूरः॑। चि॒त्। रथ॑म्। परि॑ऽतक्म्यायाम्। पूर्व॑म्। क॒र॒त्। उप॑रम्। जू॒जु॒ऽवांस॑म्। भर॑त्। च॒क्रम्। एत॑शः। सम्। रि॒णा॒ति॒। पु॒रः। दध॑त्। स॒नि॒ष्य॒ति॒। क्रतु॑म्। नः॒ ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:31» मन्त्र:11 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:31» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जो (सूरः) सूर्य्य के (चित्) सदृश (परितक्म्यायाम्) सर्व ओर से हर्ष होते हैं जिस रात्रि में उसमें (पूर्वम्) प्रथम (रथम्) सुन्दर वाहन को (उपरम्) मेघ के सदृश (करत्) करे और (जूजुवांसम्) अत्यन्त वेग से युक्त (चक्रम्) कलाओं के चलानेवाले चक्र को (एतशः) जैसे घोड़ा घोड़ेवाले को वैसे सब प्रकार (भरत्) धारण करे (पुरः) पहिले चक्र को (सम्, रिणाति) प्राप्त होता, वाहन को (दधत्) धारण करता और (नः) हम लोगों की (क्रतुम्) बुद्धि वा कर्म्मों का (सनिष्यति) सेवन करे, उसका आप सब प्रकार सत्कार करें ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं । जो मनुष्य कलाकौशल से वाहनों के यन्त्रों को रच के जल और अग्नि के अत्यन्त योग से चक्रों को उत्तम प्रकार चलाय कार्य्यों को सिद्ध करें तो जैसे सूर्य्य और पवन मेघ को वैसे बहुत भारयुक्त वाहन को अन्तरिक्ष जल और स्थल में पहुँचाने को समर्थ होवें ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यः सूरश्चित्परितक्म्यायां पूर्वं रथमुपरमिव करज्जूजुवांसं चक्रमेतश इवा भरत् पुरश्चक्रं सं रिणाति यानं दधन्नः क्रतुं सनिष्यति तं सर्वथा सत्कुर्य्याः ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सूरः) सूर्य्यः (चित्) इव (रथम्) रमणीयं यानम् (परितक्म्यायाम्) परितः सर्वतस्तक्मानि भवन्ति यस्यां तस्यां रात्रौ (पूर्वम्) प्रथमम् (करत्) कुर्य्यात् (उपरम्) मेघमिव। उपरमिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (जूजुवांसम्) अतिशयेन वेगवन्तम् (भरत्) धरेत् (चक्रम्) कलाचालकम् (एतशः) अश्वोऽश्विकमिव (सम्) (रिणाति) गच्छति (पुरः) पुरस्तात् (दधत्) दधाति (सनिष्यति) सम्भजेत् (क्रतुम्) प्रज्ञां कर्माणि वा (नः) अस्माकम् ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदि मनुष्या कलाकौशलेन यानयन्त्राणि विधाय जलाग्निप्रयोगेण चक्राणि सञ्चाल्य कार्याणि साध्नुयुस्तर्हि सूर्यवायु मेघमिव बहुभारं यानमन्तरिक्षे जले स्थले च गमयितुं शक्नुयुः ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जर माणसांनी कौशल्याने यान यंत्रे निर्माण केली व जल आणि अग्नीच्या साह्याने चक्रांना उत्तम गती देऊन कार्य केले तर जसे सूर्य व वायू मेघाला इकडे तिकडे नेतात तसे ते भारयुक्त वाहनांना अंतरिक्ष, जल, स्थलामध्ये पोचविण्यास समर्थ होतात. ॥ ११ ॥