त्वम॑ग्ने॒ वरु॑णो॒ जाय॑से॒ यत्त्वं मि॒त्रो भ॑वसि॒ यत्समि॑द्धः। त्वे विश्वे॑ सहसस्पुत्र दे॒वास्त्वमिन्द्रो॑ दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य ॥१॥
tvam agne varuṇo jāyase yat tvam mitro bhavasi yat samiddhaḥ | tve viśve sahasas putra devās tvam indro dāśuṣe martyāya ||
त्वम्। अ॒ग्ने॒। वरु॑णः। जाय॑से। यत्। त्वम्। मि॒त्रः। भ॒व॒सि॒। यत्। सम्ऽइ॑द्धः। त्वे इति॑। विश्वे॑। स॒ह॒सः॒। पु॒त्र॒। दे॒वाः। त्वम्। इन्द्रः॑। दा॒शुषे॑। मर्त्या॑य ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब बारह ऋचावाले तीसरे सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा के कर्त्तव्य को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ राजकर्तव्यकर्म्माह ॥
हे सहसस्पुत्राग्ने ! यत्त्वं मित्रो यत्समिद्धो भवसि यस्त्वं वरुणो जायसे यस्त्वमिन्द्रो दाशुषे मर्त्याय धनं ददासि तस्मिँस्त्वे विश्वे देवाः प्रसन्ना जायन्ते ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात राजा व प्रजेला चोरी व अन्य अपराध इत्यादींचे निवारण सांगितल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.