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त्री यच्छ॒ता म॑हि॒षाणा॒मघो॒ मास्त्री सरां॑सि म॒घवा॑ सो॒म्यापाः॑। का॒रं न विश्वे॑ अह्वन्त दे॒वा भर॒मिन्द्रा॑य॒ यदहिं॑ ज॒घान॑ ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

trī yac chatā mahiṣāṇām agho mās trī sarāṁsi maghavā somyāpāḥ | kāraṁ na viśve ahvanta devā bharam indrāya yad ahiṁ jaghāna ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्री। यत्। श॒ता। म॒हि॒षाणा॑म्। अघः॑। माः। त्री। सरां॑सि। म॒घऽवा॑। सो॒म्या। अपाः॑। का॒रम्। न। विश्वे॑। अ॒ह्व॒न्त॒। दे॒वाः। भर॑म्। इन्द्रा॑य। यत्। अहि॑म्। ज॒घान॑ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:29» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (यत्) जो आप (अघः) नहीं मारने योग्य होते हुए (महिषाणाम्) बड़े पदार्थों के (त्री) तीन (शता) सैकड़ों को (माः) रचिये और हे (सोम्या) चन्द्रमा के गुणों से सम्पन्न ! (मघवा) बहुत धनवान् होते हुए (त्री) तीन (सरांसि) मेघमण्डल, भूमि और अन्तरिक्ष में स्थित पदार्थों को सूर्य के सदृश प्रजाओं का (अपाः) पालन कीजिये और सूर्य्य (यत्) जैसे (अहिम्) मेघ का (जघान) नाश करता है और जैसे (विश्वे) सम्पूर्ण (देवाः) सम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् जन (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के लिये (कारम्) कर्त्ता के (न) सदृश (भरम्) पालन को (अह्वन्त) कहते हैं, वैसे ऐश्वर्य्य के लिये प्रयत्न कीजिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पुरुषार्थी जन को सब स्वीकार करते हैं, वैसे ही सूर्य ईश्वरीय नियमों से नियत जलरस का ग्रहण करता है, जैसे जन बड़े पदार्थों की उत्तेजना से सैकड़ों काम सिद्ध करते हैं, वैसे ही राजा प्रजाजनों से बड़े राजकार्य्य को सिद्ध करे ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यद्यस्त्वमघः सन् महिषाणां त्री शता माः। हे सोम्या ! मघवा सँस्त्री सरांसि सूर्य इव प्रजा अपाः सूर्यो यदहिं जघान यथा विश्वे देवा इन्द्राय कारं न भरमह्वन्त तथेन्द्राय प्रयतस्व ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्री) (यत्) यः (शता) शतानि (महिषाणाम्) महतां पदार्थनाम् (अघः) अहन्तव्यः (माः) रचयेः (त्री) (सरांसि) मेघमण्डलभूम्यन्तरिक्षस्थानि (मघवा) बहुधनवान् (सोम्या) सोमगुणसम्पन्न (अपाः) पाहि (कारम्) कर्त्तारम् (न) इव (विश्वे) सर्वे (अह्वन्त) आह्वयन्ति (देवाः) विद्वांसः (भरम्) पालनम् (इन्द्राय) ऐश्वर्य्याय (यत्) यथा (अहिम्) मेघम् (जघान) हन्ति ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यथा पुरुषार्थिनं जनं सर्वे स्वीकुर्वन्ति तथैव सूर्य्य ईश्वरनियमनियतजलरसं गृह्णाति यथा जना महतां पदार्थानां सकाशाच्छतशः कार्याणि साध्नुवन्ति तथैव राजा मरुद्भ्यः पुरुषेभ्यो महद्राजकार्य्यं साध्नुयात् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पुरुषार्थी लोकांचा सर्व जण स्वीकार करतात. तसेच ईश्वराने निर्माण केलेले जल सूर्य ओढून घेतो. जसे लोक मोठ्या पदार्थांच्या साह्याने शेकडो प्रकारचे काम करतात तसेच राजाने प्रजेकडून राज्याची मोठमोठी कामे करवून घ्यावी. ॥ ८ ॥