अन॑स्वन्ता॒ सत्प॑तिर्मामहे मे॒ गावा॒ चेति॑ष्ठो॒ असु॑रो म॒घोनः॑। त्रै॒वृ॒ष्णो अ॑ग्ने द॒शभिः॑ स॒हस्रै॒र्वैश्वा॑नर॒ त्र्य॑रुणश्चिकेत ॥१॥
anasvantā satpatir māmahe me gāvā cetiṣṭho asuro maghonaḥ | traivṛṣṇo agne daśabhiḥ sahasrair vaiśvānara tryaruṇaś ciketa ||
अन॑स्वन्ता। सत्ऽप॑तिः। म॒म॒हे॒। मे॒। गावा॑। चेतिष्ठः॑। असु॑रः। म॒घोनः॑। त्रै॒वृ॒ष्णः। अ॒ग्ने॒। द॒शऽभिः॑। स॒हस्रैः॑। वैश्वा॑नर। त्रिऽअ॑रुणः। चि॒के॒त॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छः ऋचावाले सत्ताईसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्निसादृश्य से विद्वान् के गुणों को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाग्निसादृश्येन विद्वद्गुणानाह ॥
हे वैश्वानराग्ने ! सत्पतिर्दशभिः सहस्रैरनस्वन्ता गावा सह चेतिष्ठोऽसुरस्त्रैवृष्णस्त्र्यरुणः संस्त्वं मे मघोनश्चिकेत तमहं मामहे ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी, विद्वान व राजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.