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त्वां विश्वे॑ स॒जोष॑सो दे॒वासो॑ दू॒तम॑क्रत। स॒प॒र्यन्त॑स्त्वा कवे य॒ज्ञेषु॑ दे॒वमी॑ळते ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvāṁ viśve sajoṣaso devāso dūtam akrata | saparyantas tvā kave yajñeṣu devam īḻate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वाम्। विश्वे॑। स॒ऽजोष॑सः। दे॒वासः॑। दू॒तम्। अ॒क्र॒त॒। स॒प॒र्यन्तः॑। त्वा॒। क॒वे॒। य॒ज्ञेषु॑। दे॒वम्। ई॒ळ॒ते॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:21» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शिल्पविद्यावेत्ता विद्वान् के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (कवे) विद्वन् ! जैसे (विश्वे) सम्पूर्ण (सजोषसः) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले (देवासः) विद्वान् जन (देवम्) श्रेष्ठ गुणवाले (दूतम्) दूत के सदृश वर्त्तमान अग्नि को (अक्रत) करते हैं और (सपर्यन्तः) सेवा करते हुए जन (यज्ञेषु) सत्सङ्गों में श्रेष्ठ गुणोंवाले विद्वान् की (ईळते) स्तुति करते हैं, वैसे (त्वाम्) आपकी हम लोग सेवा करें और (त्वा) आपका सत्कार करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जन अग्नि से दूतकर्म अर्थात् नौकर के सदृश काम कराते हैं, वे सब स्थानों में प्रशंसित ऐश्वर्य्यवाले होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शिल्पविद्याविद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे कवे ! यथा विश्वे सजोषसो देवासो देवं दूतमक्रत सपर्यन्तो यज्ञेषु देवमीळते तथा त्वां वयं सेवेमहि त्वा सत्कुर्य्याम ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वाम्) (विश्वे) सर्वे (सजोषसः) समानप्रीतिसेविनः (देवासः) विद्वांसः (दूतम्) दूतवद्वर्त्तमानवह्निम् (अक्रत) कुर्वते (सपर्यन्तः) परिचरन्तः (त्वा) त्वाम् (कवे) विपश्चित् (यज्ञेषु) सत्सङ्गेषु (देवम्) दिव्यगुणम् (ईळते) स्तुवन्ति ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । येऽग्निं दूतकर्म कारयन्ति ते सर्वत्र प्रशंसितैश्वर्य्या जायन्ते ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक अग्नीद्वारे दूताप्रमाणे कार्य करून घेतात. ते सर्वच प्रशंसित होऊन ऐश्वर्य उत्पन्न करतात. ॥ ३ ॥