म॒नु॒ष्वत्त्वा॒ नि धी॑महि मनु॒ष्वत्समि॑धीमहि। अग्ने॑ मनु॒ष्वद॑ङ्गिरो दे॒वान्दे॑वय॒ते य॑ज ॥१॥
manuṣvat tvā ni dhīmahi manuṣvat sam idhīmahi | agne manuṣvad aṅgiro devān devayate yaja ||
म॒नु॒ष्वत्। त्वा॒। नि। धी॒म॒हि॒। म॒नु॒ष्वत्। सम्। इ॒धी॒म॒हि॒। अग्ने॑। म॒नु॒ष्वत्। अ॒ङ्गि॒रः॒। दे॒वान्। दे॒व॒ऽय॒ते। य॒ज॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब चार ऋचावाले इक्कीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्निविषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाग्निविषयमाह ॥
हे अङ्गिरोऽग्ने! यथा वयं कार्यसिद्धयेऽग्निं मनुष्यवन्नि धीमहि देवयते देवान् मनुष्वत् समिधीमहि तथा त्वा सत्यक्रियायां निधीमहि त्वं मनुष्वद्यज ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.