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तं वो॑ दी॒र्घायु॑शोचिषं गि॒रा हु॑वे म॒घोना॑म्। अरि॑ष्टो॒ येषां॒ रथो॒ व्य॑श्वदाव॒न्नीय॑ते ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ vo dīrghāyuśociṣaṁ girā huve maghonām | ariṣṭo yeṣāṁ ratho vy aśvadāvann īyate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। वः॒। दी॒र्घायु॑ऽशोचिषम्। गि॒रा। हु॒वे॒ म॒घोना॑म्। अरि॑ष्टः। येषा॑म्। रथः॑। वि। अ॒श्व॒ऽदा॒व॒न्। ईय॑ते ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:18» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (येषाम्) जिन अतिथियों और (मघोनाम्) बहुत धन से युक्त (वः) आप लोगों का (अरिष्टः) नहीं हिंसा करने योग्य (रथः) वाहन (वि, ईयते) विशेषता से चलता है, उनका मैं (हुवे) आह्वान करता हूँ और हे (अश्वदावन्) व्याप्त करनेवाले विज्ञान आदि गुणों के दाता गृहस्थ ! आपके कल्याण के लिये (तम्) उस (दीर्घायुशोचिषम्) दीर्घ अर्थात् अधिक अवस्था पवित्र करनेवाली जिसकी ऐसे अतिथि विद्वान् का मैं (गिरा) वाणी से आह्वान करता हूँ ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो अहिंसादि धर्म से युक्त मनुष्य अतिकालपर्य्यन्त जीवनेवाले धार्मिक अतिथियों की सेवा करते हैं, वे भी दीर्घायु और लक्ष्मीवान् होकर आनन्दित होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! येषां मघोनां वोऽरिष्टो रथो वीयते तानहं हुवे। हे अश्वदावन् गृहस्थ ! त्वत्कल्याणाय तं दीर्घायुशोचिषमतिथिमहं गिरा हुवे ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (वः) युष्माकम् (दीर्घायुशोचिषम्) दीर्घमायुः शोचिः पवित्रकरं यस्य तम् (गिरा) (हुवे) आह्वये (मघोनाम्) बहुधनयुक्तानाम् (अरिष्टः) अहिंसनीयः (येषाम्) अतिथीनाम् (रथः) यानम् (वि) (अश्वदावन्) योऽश्वान् व्याप्तिकरान् विज्ञानादिगुणान् ददाति तत्सम्बुद्धौ (ईयते) गच्छति ॥३॥
भावार्थभाषाः - येऽहिंसादिधर्मयुक्ता मनुष्याश्चिरञ्जीविनो धार्मिकानतिथीन् सेवन्ते तेऽपि दीर्घायुषः श्रीमन्तो भूत्वाऽऽनन्दिता जायन्ते ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी अहिंसक माणसे दीर्घजीवी धार्मिक अतिथींची सेवा करतात. तीही दीर्घायू व श्रीमंत बनून आनंदित होतात ॥ ३ ॥