आ य॒ज्ञैर्दे॑व॒ मर्त्य॑ इ॒त्था तव्यां॑समू॒तये॑। अ॒ग्निं कृ॒ते स्व॑ध्व॒रे पू॒रुरी॑ळी॒ताव॑से ॥१॥
ā yajñair deva martya itthā tavyāṁsam ūtaye | agniṁ kṛte svadhvare pūrur īḻītāvase ||
आ॒। य॒ज्ञैः। दे॒व॒। मर्त्यः॑। इ॒त्था। तव्यां॑सम्। ऊ॒तये॑। अ॒ग्निम्। कृ॒ते। सु॒ऽअ॒ध्व॒रे। पू॒रुः। ई॒ळी॒त॒। अव॑से ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्न्यादि विद्याविषय को कहते हैं ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाग्न्यादिविद्याविषयमाह ॥
हे देव ! यथा पूरुर्मर्त्यः कृते स्वध्वरे यज्ञैरवसे तव्यांसमग्निमीळीतेत्थोतय आ प्रयुङ्क्ष्व ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.