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अ॒ग्निर्नो॑ य॒ज्ञमुप॑ वेतु साधु॒याग्निं नरो॒ वि भ॑रन्ते गृ॒हेगृ॑हे। अ॒ग्निर्दू॒तो अ॑भवद्धव्य॒वाह॑नो॒ऽग्निं वृ॑णा॒ना वृ॑णते क॒विक्र॑तुम् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir no yajñam upa vetu sādhuyāgniṁ naro vi bharante gṛhe-gṛhe | agnir dūto abhavad dhavyavāhano gniṁ vṛṇānā vṛṇate kavikratum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। नः॒। य॒ज्ञम्। उप॑। वे॒तु॒। सा॒धु॒ऽया। अ॒ग्निम्। नरः॑। वि। भ॒र॒न्ते॒। गृ॒हेऽगृ॑हे। अ॒ग्निः। दू॒तः। अ॒भ॒व॒त्। ह॒व्य॒ऽवाह॑नः। अ॒ग्निम्। वृ॒णा॒नाः। वृ॒ण॒ते॒। क॒विऽक्र॑तुम् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:11» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्न्यादिकों के गुणों को मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (अग्निः) अग्नि (नः) हम लोगों के (यज्ञम्) मिलने योग्य व्यवहार को (उप, वेतु) व्याप्त हो और जैसे (साधुया) श्रेष्ठ (नरः) अग्रणी मनुष्य (गृहेगृहे) गृहगृह में (अग्निम्) अग्नि के सदृश (वि, भरन्ते) धारण करते हैं और जैसे (हव्यवाहनः) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को एक देश से दूसरे देशों में पहुँचानेवाला (अग्निः) अग्नि (दूतः) दूत के सदृश कार्य्यों का सिद्धकर्त्ता (अभवत्) होता है और जैसे (अग्निम्) अग्नि को (वृणानाः) स्वीकार करते हुए जन (कविक्रतुम्) बुद्धिमान् की बुद्धि का (वृणते) स्वीकार करते हैं, वैसे ही आप लोग आचरण करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो अग्नि के सदृश तेजस्वी, सज्जनों के सदृश उपकार करने और प्रत्येक जन के लिये मङ्गल देनेवाले हैं, वे सर्वदा सत्कार करने योग्य हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्न्यादिगुणानाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाग्निर्नो यज्ञमुप वेतु यथा साधुया नरो गृहेगृहेऽग्निं वि भरन्ते यथा हव्यवाहनोऽग्निर्दूतोऽभवद् यथाऽग्निं वृणानाः कविक्रतुं वृणते तथैव यूयमाचरत ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) पावकः (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यं व्यवहारम् (उप) (वेतु) व्याप्नोतु (साधुया) साधवः (अग्निम्) पावकम् (नरः) नेतारो मनुष्याः (वि) (भरन्ते) धरन्ति (गृहेगृहे) प्रतिगृहम् (अग्निः) (दूतः) दूतवत्कार्यसाधकः (अभवत्) भवति (हव्यवाहनः) आदातव्यान् पदार्थान् देशान्तरे प्रापकः (अग्निम्) (वृणानाः) स्वीकुर्वाणाः (वृणते) स्वीकुर्वन्ति (कविक्रतुम्) प्रज्ञप्रज्ञाम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । येऽग्निवत्प्रतापिनः सज्जनवदुपकारकाः प्रतिजनाय मङ्गलप्रदाः सन्ति ते सर्वदा सत्कर्त्तव्या भवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे अग्नीप्रमाणे पराक्रमी, सज्जनाप्रमाणे उपकारक व प्रत्येकासाठी कल्याणकारक असतात ते सदैव सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ ४ ॥