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अ॒ग्निमच्छा॑ देवय॒तां मनां॑सि॒ चक्षूं॑षीव॒ सूर्ये॒ सं च॑रन्ति। यदीं॒ सुवा॑ते उ॒षसा॒ विरू॑पे श्वे॒तो वा॒जी जा॑यते॒ अग्रे॒ अह्ना॑म् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnim acchā devayatām manāṁsi cakṣūṁṣīva sūrye saṁ caranti | yad īṁ suvāte uṣasā virūpe śveto vājī jāyate agre ahnām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्। अच्छ॑। दे॒व॒ऽय॒ताम्। मनां॑सि। चक्षूं॑षिऽइव। सूर्ये॑। सम्। च॒र॒न्ति॒। यत्। ई॒म्। सुवा॑ते॒ इति॑। उ॒षसा॑। विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे। श्वे॒तः। वा॒जी। जा॒य॒ते॒। अग्रे॑। अह्ना॑म् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:1» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो! (यत्) जैसे (अह्नाम्) दिनों के (अग्रे) अग्रभाग में (विरूपे) विरुद्धस्वरूप (उषसा) रात्रि और दिन (ईम्) प्राप्त हुई क्रिया को (सुवाते) उत्पन्न कराते हैं और उन में (श्वेतः) श्वेतवर्ण (वाजी) जनानेवाला अर्थात् कार्य्यों की सूचना दिलानेवाला दिवस (जायते) उत्पन्न होता है, वैसे (अग्निम्) अग्नि की (देवयताम्) कामना करते हुए जनों के बीच (सूर्ये) सूर्य्य में (चक्षूंषीव) नेत्रों के सदृश परमात्मा में (मनांसि) अन्तःकरण (अच्छा) उत्तम प्रकार (सम्, चरन्ति) प्राप्त होते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे दिन वैसे विद्वान् जन और जैसे रात्रि वैसे अविद्वान् हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या! यद्यथाऽह्नामग्रे विरूपे उषसेम् सुवाते तयोः श्वेतो वाजी जायते तथाग्निं देवयतां सूर्ये चक्षूंषीव परमात्मनि मनांस्यच्छा सञ्चरन्ति ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निम्) पावकम् (अच्छा) सम्यक्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (देवयताम्) कामयमानानाम् (मनांसि) अन्तःकरणानि (चक्षूंषीव) (सूर्ये) सवितरीव सूर्ये (सम्) (चरन्ति) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति (यत्) यथा (ईम्) (सुवाते) उत्पादयतः (उषसा) रात्रिदिने (विरूपे) विरुद्धस्वरूपे (श्वेतः) (वाजी) विज्ञापको दिवसः (जायते) उत्पद्यते (अग्रे) (अह्नाम्) दिनानाम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यथा दिनं तथा विद्वांसो यथा रात्रिस्तथाऽविद्वांसः सन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान लोक दिवसाप्रमाणे असतात व अविद्वान लोक रात्रीप्रमाणे असतात. ॥ ४ ॥