अवो॑चाम क॒वये॒ मेध्या॑य॒ वचो॑ व॒न्दारु॑ वृष॒भाय॒ वृष्णे॑। गवि॑ष्ठिरो॒ नम॑सा॒ स्तोम॑म॒ग्नौ दि॒वी॑व रु॒क्ममु॑रु॒व्यञ्च॑मश्रेत् ॥१२॥
avocāma kavaye medhyāya vaco vandāru vṛṣabhāya vṛṣṇe | gaviṣṭhiro namasā stomam agnau divīva rukmam uruvyañcam aśret ||
अवो॑चाम। क॒वये॑। मेध्या॑य। वचः॑। व॒न्दारु॑। वृ॒ष॒भाय॑। वृष्णे॑। गवि॑ष्ठिरः। नम॑सा। स्तोम॑म्। अ॒ग्नौ। दि॒विऽइ॑व। रु॒क्मम्। उ॒रु॒ऽव्यञ्च॑म्। अ॒श्रे॒त् ॥१२॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
हे राजादयो मनुष्या अतिथयो ! वयं यो गविष्ठिरो नमसा दिवीवाग्नौ रुक्ममुरुव्यञ्चं स्तोममश्रेत् तस्मै वृष्णे वृषभाय मेध्याय कवये वन्दारु वचोऽवोचाम ॥१२॥