वि॒हि होत्रा॒ अवी॑ता॒ विपो॒ न रायो॑ अ॒र्यः। वाय॒वा च॒न्द्रेण॒ रथे॑न या॒हि सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ ॥१॥
vihi hotrā avītā vipo na rāyo aryaḥ | vāyav ā candreṇa rathena yāhi sutasya pītaye ||
वि॒हि। होत्राः॑। अवी॑ताः। विपः॑। न। रायः॑। अ॒र्यः। वायो॒ इति॑। आ। च॒न्द्रेण॑। रथे॑न। या॒हि। सु॒तस्य॑। पी॒तये॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले अड़तालीसवें सूक्त का आरम्भ है। अब राजा प्रजा के साथ कैसे वर्ते, इस विषय को प्रथम मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ राजा प्रजाभिः सह कथं वर्त्तेतेत्याह ॥
हे वायो विपस्त्वमर्यो रायो नावीता होत्रा विहि सुतस्य पीतये चन्द्रेण रथेनाऽऽयाहि ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात राजाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.