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उद्वां॑ पृ॒क्षासो॒ मधु॑मन्त ईरते॒ रथा॒ अश्वा॑स उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टिषु। अ॒पो॒र्णु॒वन्त॒स्तम॒ आ परी॑वृतं॒ स्व१॒॑र्ण शु॒क्रं त॒न्वन्त॒ आ रजः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud vām pṛkṣāso madhumanta īrate rathā aśvāsa uṣaso vyuṣṭiṣu | aporṇuvantas tama ā parīvṛtaṁ svar ṇa śukraṁ tanvanta ā rajaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। वा॒म्। पृ॒क्षासः॑। मधुऽमन्तः। ई॒र॒ते॒। रथाः॑। अश्वा॑सः। उ॒षसः॑। विऽउ॑ष्टिषु। अ॒प॒ऽऊ॒र्णु॒वन्तः॑। तमः॑। आ। परि॑ऽवृतम्। स्वः॑। न। शु॒क्रम्। त॒न्वन्तः॑। आ। रजः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:45» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! जैसे (मधुमन्तः) मधुर आदि गुणों से युक्त (पृक्षासः) उत्तम प्रकार सींचे गये (उषसः) प्रभात वेला की (तमः) रात्रि को (अपोर्णुवन्तः) निवारण करते अर्थात् हटाते हुए (व्युष्टिषु) अनेक प्रकार की सेवाओं में (रथाः) वाहनों और (अश्वासः) घोड़ों के सदृश (आ, परीवृतम्) सब प्रकार से घिरे हुए को (स्वः) सूर्य्य के (न) सदृश (शुक्रम्) शुद्ध (आ, रजः) लोक-लोकान्तर को (तन्वन्तः) विस्तृत करते हुए सूर्य्यकिरण (वाम्) आप दोनों को (उत्, ईरते) कँपते, चञ्चल होते, ऊपर से प्राप्त होते हैं, उनको आप लोग विशेष करके जानो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! ये सब लोक सूर्य्य के सब ओर घूमते हैं और जैसे सूर्य्य की किरणें भूगोल के आधे भाग में स्थित अन्धकार को निवारण करके प्रकाश उत्पन्न करते हैं, वैसे ही विद्वान् जन विद्या के दान से अविद्या को निवारण करके विद्या को उत्पन्न करें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशकौ ! यथा मधुमन्तः पृक्षास उषसस्तमोऽपोर्णुवन्तो व्युष्टिषु रथा अश्वास इवा परीवृतं स्वर्ण शुक्रमारजस्तन्वन्तस्सूर्यकिरणा वामुदीरते तान् यूयं विजानीत ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) (वाम्) युवाम् (पृक्षासः) संसिक्ताः (मधुमन्तः) मधुरादिगुणयुक्ताः (ईरते) कम्पन्ते गच्छन्ति (रथाः) यथा यानानि (अश्वासः) तुरङ्गाः (उषसः) प्रभातवेलायाः (व्युष्टिषु) विविधासु सेवासु (अपोर्णुवन्तः) निवारयन्तः (तमः) रात्रीम् (आ) (परीवृतम्) सर्वत आवृतम् (स्वः) आदित्यः (न) इव (शुक्रम्) शुद्धम् (तन्वन्तः) विस्तृणन्तः (आ) (रजः) लोकलोकान्तरम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! इमे सर्वे लोकाः सूर्य्यस्याऽभितो भ्रमन्ति यथा सूर्य्यकिरणा भूगोलार्धस्थं तमो निवार्य्य प्रकाशं जनयन्ति तथैव विद्वांसो विद्यादानेनाविद्यान् निवार्य्य विद्यां जनयेयुः ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! हे सर्व लोक (गोल) सूर्याच्या सर्व बाजूंनी फिरतात व जशी सूर्याची किरणे भूगोलाच्या अर्ध्या भागात स्थित राहून अंधकाराचे निवारण करून प्रकाश उत्पन्न करतात, तसेच विद्वान लोकांनी विद्यादान करून अविद्येचे निवारण करून विद्या उत्पन्न करावी. ॥ २ ॥