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इ॒मा इन्द्रं॒ वरु॑णं मे मनी॒षा अग्म॒न्नुप॒ द्रवि॑णमि॒च्छमा॑नाः। उपे॑मस्थुर्जो॒ष्टार॑इव॒ वस्वो॑ र॒घ्वीरी॑व॒ श्रव॑सो॒ भिक्ष॑माणाः ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imā indraṁ varuṇam me manīṣā agmann upa draviṇam icchamānāḥ | upem asthur joṣṭāra iva vasvo raghvīr iva śravaso bhikṣamāṇāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒माः। इन्द्र॑म्। वरु॑णम्। मे॒। म॒नी॒षाः। अग्म॑न्। उप॑। द्रवि॑णम्। इ॒च्छमा॑नाः। उप॑। ई॒म्। अ॒स्थुः॒। जो॒ष्टारः॑ऽइव। वस्वः॑। र॒घ्वीःऽइ॑व। श्रव॑सः। भिक्ष॑माणाः ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:41» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा और प्रजा के कर्त्तव्य विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जो (इमाः) ये प्रत्यक्ष कुमारी ब्रह्मचारिणियाँ (मे) मेरी (मनीषाः) बुद्धियों के सदृश (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्य (द्रविणम्) धन वा यश और (वरुणम्) श्रेष्ठ स्वभाव की (इच्छमानाः) इच्छा करती हुई पढ़ानेवालियों को (अग्मन्) प्राप्त होवें और (जोष्टारइव) सेवा करते हुए पुरुषों के समान (वस्वः) धन के (उप, अस्थुः) समीप स्थित होती (ईम्) और प्रत्यक्ष (श्रवसः) अन्न की (रघ्वीरिव) छोटी ब्रह्मचारिणियों के सदृश (भिक्षमाणाः) याचना करती हुई पढ़ानेवाली स्त्रियों के (उप) समीप स्थित हुई वे ही कन्या अत्यन्त श्रेष्ठ होती हैं ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे राजन् ! जैसे कन्याजन ब्रह्मचर्य्य से ग्रहण की गई विद्या और उत्तम शिक्षा से यशयुक्त और विद्यावाली होकर अपने अनुकूल पतियों को प्राप्त होकर सदा आनन्दित होती हैं, वैसे ही प्रजाओं के साथ आप और आपके साथ प्रजाजन निरन्तर आनन्द करें ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजाप्रजाकृत्यमाह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! या इमाः कुमार्यो ब्रह्मचारिण्यो मे मनीषा इवेन्द्रं द्रविणं वरुणमिच्छमाना अध्यापिका अग्मन् जोष्टारइव वस्व उपास्थुरीं श्रवसो रघ्वीरिव भिक्षमाणा अध्यापिका उप तस्थुस्ता एव प्रवरा जायन्ते ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमाः) प्रत्यक्षाः (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यम् (वरुणम्) श्रेष्ठं स्वभावम् (मे) मम (मनीषाः) (अग्मन्) प्राप्नुवन्तु (उप) (द्रविणम्) धनं यशो वा (इच्छमानाः) (उप) (ईम्) (अस्थुः) तिष्ठन्ति (जोष्टारइव) सेवमाना इव (वस्वः) धनस्य (रघ्वीरिव) लघ्व्यो ब्रह्मचारिण्य इव (श्रवसः) अन्नस्य (भिक्षमाणाः) याचमानाः ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे राजन् ! यथा कन्या ब्रह्मचर्य्येण गृहीताभ्यां विद्यासुशिक्षाभ्यां यशस्विन्यो विदुष्यो भूत्वा स्वसदृशान् पतीन् प्राप्य सदाऽऽनन्दन्ति तथैव प्रजाभिः सह भवान् भवता सह प्रजाः सततमानन्दन्तु ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा! जशा कन्या ब्रह्मचर्य पाळून विद्या व उत्तम शिक्षणाने यशस्वी व विदुषी बनून आपल्या सारख्याच पतींना प्राप्त करून सदैव आनंदित होतात तसे प्रजेबरोबर तुम्ही व तुमच्याबरोबर प्रजा निरंतर आनंदी असावी. ॥ ९ ॥