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आ नो॑ बृहन्ता बृह॒तीभि॑रू॒ती इन्द्र॑ या॒तं व॑रुण॒ वाज॑सातौ। यद्दि॒द्यवः॒ पृत॑नासु प्र॒क्रीळा॒न्तस्य॑ वां स्याम सनि॒तार॑ आ॒जेः ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no bṛhantā bṛhatībhir ūtī indra yātaṁ varuṇa vājasātau | yad didyavaḥ pṛtanāsu prakrīḻān tasya vāṁ syāma sanitāra ājeḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। नः॒। बृ॒ह॒न्ता॒। बृ॒ह॒तीभिः॑। ऊ॒ती। इन्द्र॑। या॒तम्। व॒रु॒ण॒। वाज॑ऽसातौ। यत्। दि॒द्यवः॑। पृत॑नासु। प्र॒ऽकीळा॑न्। तस्य॑। वा॒म्। स्या॒म॒। स॒नि॒तारः॑। आ॒जेः ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:41» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:16» मन्त्र:6 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजप्रजाविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) दुष्टों के दलन करनेवाले राजन् और (वरुण) सेना के ईश ! (बृहन्ता) श्रेष्ठ गुणों से बड़े आप दोनों (बृहतीभिः) बड़ी (ऊती) रक्षा आदिकों से (वाजसातौ) सङ्ग्राम में (नः) हम लोगों को (आ) सब ओर से (यातम्) प्राप्त हूजिये (यत्) जो (दिद्यवः) विद्या और विनय से प्रकाशमान तेजस्वी (तस्य) उस (आजेः) सङ्ग्राम के (सनितारः) विभाग करनेवाले हम (पृतनासु) सेनाओं में (प्रक्रीळान्) उत्तम क्रीड़ा अर्थात् विहारों को प्राप्त होकर (वाम्) आप दोनों से विहार को प्राप्त हुए (स्याम) होवें, उन हम लोगों का आप दोनों सत्कार करें ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जैसे हम लोग आपके प्रति प्रीति से वर्त्ताव करें, वैसा ही आपको भी चाहिये कि हम लोगों में वर्त्ताव करें ॥११॥ इस सूक्त में अध्यापक, उपदेशक, राजा, प्रजा और मन्त्री के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥११॥ यह इकतालीसवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजप्रजाविषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र वरुण ! बृहन्ता युवां बृहतीभिरूती वाजसातौ न आ यातम्। यद्ये दिद्यवस्तस्याजेः सनितारो वयं पृतनासु प्रक्रीळान् प्राप्य वां क्रीडां प्राप्ताः स्याम तानस्मान् युवां सत्कुर्य्यातम् ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (बृहन्ता) सद्गुणैर्महान्तौ (बृहतीभिः) महतीभिः (ऊती) रक्षाभिः। अत्र सुपां सुलुगिति भिसो लुक्। (इन्द्र) दुष्टदलक राजन् (यातम्) प्राप्नुतम् (वरुण) सेनेश (वाजसातौ) सङ्ग्रामे (यत्) ये (दिद्यवः) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमानास्तेजस्विनः (पृतनासु) सेनासु (प्रक्रीळान्) प्रकृष्टान् विहारान् (तस्य) (वाम्) युवाभ्याम् (स्याम) (सनितारः) विभक्तारः (आजेः) सङ्ग्रामस्य ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यथा वयं भवतः प्रति प्रीत्या वर्त्तेमहि तथैव भवताप्यस्मासु वर्त्तितव्यमिति ॥११॥ अत्राध्यापकोपदेशकराजप्रजामात्यकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥११॥ इत्येकचत्वारिंशत्तमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा! जसे आम्ही तुझ्याशी प्रेमाने वागतो तसे तूही आमच्याशी वाग. ॥ ११ ॥