इन्द्रा॒ को वां॑ वरुणा सु॒म्नमा॑प॒ स्तोमो॑ ह॒विष्माँ॑ अ॒मृतो॒ न होता॑। यो वां॑ हृ॒दि क्रतु॑माँ अ॒स्मदु॒क्तः प॒स्पर्श॑दिन्द्रावरुणा॒ नम॑स्वान् ॥१॥
indrā ko vāṁ varuṇā sumnam āpa stomo haviṣmām̐ amṛto na hotā | yo vāṁ hṛdi kratumām̐ asmad uktaḥ pasparśad indrāvaruṇā namasvān ||
इन्द्रा॑। कः। वा॒म्। व॒रु॒णा॒। सु॒म्नम्। आ॒प॒। स्तोमः॑। ह॒विष्मा॑न्। अ॒मृतः॑। न। होता॑। यः। वा॒म्। हृ॒दि। क्रतु॑ऽमान्। अ॒स्मत्। उ॒क्तः। प॒स्पर्श॑त्। इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒। नम॑स्वान् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ग्यारह ऋचावाले इकतालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अध्यापक और उपदेशक के विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाध्यापकोपदेशकविषयमाह ॥
हे इन्द्रावरुणाऽध्यापकोपदेशकौ ! वां कः स्तोमः सुम्नं हविष्मानमृतो होता नाप। हे इन्द्रावरुणा ! योऽस्मदुक्तो नमस्वान् क्रतुमान् वां हृदि पस्पर्शत् ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अध्यापक, उपदेशक, राजा, प्रजा व मंत्री यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.