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आग॑न्नृभू॒णामि॒ह र॑त्न॒धेय॒मभू॒त्सोम॑स्य॒ सुषु॑तस्य पी॒तिः। सु॒कृ॒त्यया॒ यत्स्व॑प॒स्यया॑ चँ॒ एकं॑ विच॒क्र च॑म॒सं च॑तु॒र्धा ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āgann ṛbhūṇām iha ratnadheyam abhūt somasya suṣutasya pītiḥ | sukṛtyayā yat svapasyayā cam̐ ekaṁ vicakra camasaṁ caturdhā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। अ॒ग॒न्। ऋ॒भू॒णाम्। इ॒ह। र॒त्न॒ऽधेय॑म्। अभू॑त्। सोम॑स्य। सुऽसु॑तस्य। पी॒तिः। सु॒ऽकृ॒त्यया॑। यत्। सु॒ऽअ॒प॒स्यया॑। च॒। एक॑म्। वि॒ऽच॒क्र। च॒म॒सम्। च॒तुः॒ऽधा ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:35» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! आप (सुकृत्यया) सुन्दर क्रिया से (स्वपस्यया) वा सुन्दर कर्म्मों को अपनी इच्छा से (यत्) जिस (एकम्) एक (चमसम्) मेघ के सदृश गर्जना करनेवाले रथ को (चतुर्धा) नीचे, ऊपर, तिरछी और मध्यम गतिवाला (विचक्र) करते हैं जिससे (सुषुतस्य) उत्तम प्रकार उत्पन्न किये गये (सोमस्य) ऐश्वर्य्य का (पीतिः) पान (अभूत्) होवे और (इह) इस संसार में (ऋभूणाम्) बुद्धिमानों के (रत्नधेयम्) रत्न धरने के पात्ररूप जन को (आ, अगन्) सब प्रकार प्राप्त होवें (च) उसीसे गमन आदि कार्य्यों को सिद्ध करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य उत्तम हस्तक्रिया और उत्तम कर्म से सर्वत्र पहुँचानेवाले वाहन आदि को रचते हैं, वे खाने और पीने योग्य पदार्थ और असङ्ख्य धनों को प्राप्त होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! भवन्तो सुकृत्यया स्वपस्यया यद्यमेकं चमसं चतुर्धा विचक्र येन सुषुतस्य सोमस्य पीतिरभूदिहर्भूणां रत्नधेयमागँस्तेन च गमनादिकार्य्याणि साध्नुत ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (अगन्) (ऋभूणाम्) मेधाविनाम् (इह) अस्मिन् संसारे (रत्नधेयम्) (अभूत्) भवेत् (सोमस्य) ऐश्वर्य्यस्य (सुषुतस्य) सुष्ठु निष्पादितस्य (पीतिः) पानम् (सुकृत्यया) शोभनक्रियया (यत्) यम् (स्वपस्यया) सुष्ठ्वपांसि कर्माणि तान्यात्मन इच्छया (च) (एकम्) (विचक्र) कुर्वन्ति (चमसम्) चमसं मेघमिव गर्जनावन्तं रथम् (चतुर्धा) अधऊर्ध्वतिर्यक्समगतियुक्तम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः सुष्ठुहस्तक्रिययोत्तमकर्मणा सर्वतो गमयितारं रथादिकं निर्ममते ते भोज्यपेयासङ्ख्यधनानि प्राप्नुवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे उत्तम हस्तक्रिया व उत्तम कर्म करून सर्वत्र गमन करणारी वाहने निर्माण करतात ती खाण्या-पिण्यायोग्य पदार्थ व असंख्य धन प्राप्त करतात. ॥ २ ॥