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अ॒स्माक॑मुत्त॒मं कृ॑धि॒ श्रवो॑ दे॒वेषु॑ सूर्य। वर्षि॑ष्ठं॒ द्यामि॑वो॒परि॑ ॥१५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmākam uttamaṁ kṛdhi śravo deveṣu sūrya | varṣiṣṭhaṁ dyām ivopari ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्माक॑म्। उ॒त्ऽत॒मम्। कृ॒धि॒। श्रवः॑। दे॒वेषु॑। सू॒र्य॒। वर्षि॑ष्ठम्। द्याम्ऽइ॑व। उ॒परि॑ ॥१५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:31» मन्त्र:15 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सूर्य्य) सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान राजन् ! आप (उपरि) ऊपर वर्त्तमान (द्यामिव) प्रकाश के सदृश (अस्माकम्) हम लोगों के (उत्तमम्) अत्यन्त श्रेष्ठ (वर्षिष्ठम्) अत्यन्त बड़े हुए (श्रवः) अन्न आदि वा श्रवण को (देवेषु) विद्वानों में (कृधि) करिये ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे आकाश में सूर्य्य बड़ा है, वैसे ही विद्या और विनय की उन्नति से उत्तम ऐश्वर्य्य को उत्पन्न करो ॥१५॥ इस सूक्त में राजा और प्रजा के धर्म वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥१५॥ यह कतीसवाँ सूक्त और छब्बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे सूर्य्य राजँस्त्वमुपरि द्यामिवाऽस्माकमुत्तमं वर्षिष्ठं श्रवो देवेषु कृधि ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्माकम्) (उत्तमम्) अतिश्रेष्ठम् (कृधि) कुरु (श्रवः) अन्नादिकं श्रवणं वा (देवेषु) विद्वत्सु (सूर्य्य) सूर्य इव वर्त्तमान (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धम् (द्यामिव) प्रकाशमिव (उपरि) ऊर्ध्वं वर्त्तमानम् ॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथाऽऽकाशे सूर्य्यो महानस्ति तथैव विद्याविनयोन्नत्या सर्वोत्कृष्टमैश्वर्य्यं जनयतेति ॥१५॥ अत्र राजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥१५॥ इत्येकत्रिंशत्तमं षड्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा आकाशात सूर्य मोठा आहे तसेच विद्या व विनयाने वाढवून उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त करा. ॥ १५ ॥