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ए॒तद्घेदु॒त वी॒र्य१॒॑मिन्द्र॑ च॒कर्थ॒ पौंस्य॑म्। स्त्रियं॒ यद्दु॑र्हणा॒युवं॒ वधी॑र्दुहि॒तरं॑ दि॒वः ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

etad ghed uta vīryam indra cakartha pauṁsyam | striyaṁ yad durhaṇāyuvaṁ vadhīr duhitaraṁ divaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒तत्। घ॒। इत्। उ॒त। वी॒र्य॑म्। इन्द्र॑। च॒कर्थ॑। पौंस्य॑म्। स्त्रिय॑म्। यत्। दुः॒ऽह॒ना॒युव॑म्। वधीः॑। दु॒हि॒तर॑म्। दि॒वः ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:30» मन्त्र:8 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) दोषों के नाश करनेवाले जैसे सूर्य्य (दुर्हणायुवम्) दुःख से नाश करने योग्य की कामना करनेवाले (दिवः) प्रकाश की (दुहितरम्) कन्या के सदृश वर्त्तमान प्रातर्वेला का नाश करता है, वैसे (एतत्) इस कर्म्म और (पौंस्यम्) पुरुषों के लिये हित (वीर्य्यम्) पराक्रम को (चकर्थ) करते हो और आप (घ) शत्रुओं ही का (वधीः, इत्) नाश करते ही हो (यत्) जो (स्त्रियम्) स्त्री (उत) और भृत्य को भी पालिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य रात्रि का नाश और दिन की उत्पत्ति करके प्राणियों को सुख देता है, वैसे ही दुष्ट आचरणों का नाश और श्रेष्ठों का पालन कर और विद्या को उत्पन्न करके सम्पूर्ण प्रजाओं को सुख देवें ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यथा सूर्य्यो दुर्हणायुवं दिवो दुहितरं हन्ति तथैतत् पौंस्यं वीर्य्यं चकर्थ त्वं शत्रून् घ वधीरिद्यत् स्त्रियमुतापि भृत्यं पालयेः ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एतत्) कर्म्म (घ) एव (इत्) (उत) (वीर्य्यम्) पराक्रमम् (इन्द्र) दोषविनाशक (चकर्थ) करोषि (पौंस्यम्) पुंभ्यो हितम् (स्त्रियम्) (यत्) (दुर्हणायुवम्) दुःखेन हन्तुं योग्यं कामयते ताम् (वधीः) हंसि (दुहितरम्) दुहितरमिव वर्त्तमानामुषसम् (दिवः) प्रकाशस्य ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यो रात्रिं हत्वा दिनं जनयित्वा प्राणिनः सुखयति तथैव दुष्टाचारान् हत्वा श्रेष्ठान्त्सम्पाल्य विद्यां जनयित्वा सर्वाः प्रजाः सुखयेत् ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य रात्रीचा नाश व दिवसाची उत्पत्ती करून प्राण्यांना सुख देतो, तसेच (राजाने) दुष्ट आचरणाचा नाश व श्रेष्ठांचे पालन करून विद्या उत्पन्न करून संपूर्ण प्रजेला सुखी करावे. ॥ ८ ॥