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अव॒ यच्छ्ये॒नो अस्व॑नी॒दध॒ द्योर्वि यद्यदि॒ वात॑ ऊ॒हुः पुर॑न्धिम्। सृ॒जद्यद॑स्मा॒ अव॑ ह क्षि॒पज्ज्यां कृ॒शानु॒रस्ता॒ मन॑सा भुर॒ण्यन् ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ava yac chyeno asvanīd adha dyor vi yad yadi vāta ūhuḥ puraṁdhim | sṛjad yad asmā ava ha kṣipaj jyāṁ kṛśānur astā manasā bhuraṇyan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अव॑। यत्। श्ये॒नः। अस्व॑नीत्। अध॑। द्योः। वि। यत्। यदि॑। वा॒। अतः॑। ऊ॒हुः। पुर॑म्ऽधिम्। सृ॒जत्। यत्। अ॒स्मै॒। अव॑। ह॒। क्षि॒पत्। ज्याम्। कृ॒शानुः॑। अस्ता॑। मन॑सा। भु॒र॒ण्यन् ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:27» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:16» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जो (श्येनः) वाज पक्षी के सदृश वर्त्तमान (अव, अस्वनीत्) शब्द करे उपदेश देवे (अध) इसके अनन्तर (यत्) जो (द्योः) प्रकाश के सम्बन्ध में (पुरन्धिम्) बहुत धारण करनेवाले राजा को (सृजत्) उत्पन्न करे (यत्, वा) अथवा जो शत्रुबल को कम्पावे (अस्मै,ह) इसी के लिये (ज्याम्) धनुष् की ताँत की (अव, क्षिपत्) प्रेरणा देता है (अतः) इस कारण (कृशानुः) शत्रुओं को खींचनेवाला जैसे वैसे (मनसा) अन्तःकरण से (भुरण्यन्) पदार्थों का धारण वा पोषण करता हुआ (अस्ता) फेंकनेवाला (वि) विशेष करके फेंकता है (यदि) जो उसको अन्य जन (ऊहुः) पहुँचाते हैं तो वह सब स्थान में विजयी होवे ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सत्य के उपदेश करने, सत्य न्याय करने, शत्रुओं के जीतने और प्रजा के पालन करनेवाले राजा को प्राप्त होवें, वे सब प्रकार से सुखी होवें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्याः ! यद्यः श्येन इवावास्वनीदध यद् द्योः पुरन्धिं सृजद् यद्वा शत्रुबलं कम्पयेदस्मै ह ज्यामवक्षिपदतः कृशानुरिव मनसा भुरण्यन्नस्ता व्यवक्षिपद्यदि तमन्य ऊहुस्तर्हि स सर्वत्र विजयी स्यात् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अव) (यत्) यः (श्येनः) श्येन इव वर्त्तमानः (अस्वनीत्) शब्दयेदुपदिशेत् (अध) (द्योः) प्रकाशस्य (वि) (यत्) यः (यदि) (वा) (अतः) (ऊहुः) वहन्ति (पुरन्धिम्) बहुधरं राजानम् (सृजत्) सृजेत् (यत्) यः (अस्मै) (अव) (ह) खलु (क्षिपत्) प्रेरयति (ज्याम्) धनुषः प्रत्यञ्चाम् (कृशानुः) शत्रूणां कर्षकः (अस्ता) प्रक्षेप्ता (मनसा) अन्तःकरणेन (भुरण्यन्) धरन् पुष्यन् वा ॥३॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या सत्यमुपदेष्टारं सत्यन्यायकरं शत्रूणां जेतारं प्रजापालकं राजानं प्राप्नुयुस्ते सर्वतः सुखिनः स्युः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या माणसांना सत्याचा उपदेश करणारा, सत्य न्याय करणारा, शत्रूंना जिंकणारा व प्रजेचे पालन करणारा राजा प्राप्त होतो ती सर्व प्रकारे सुखी होतात. ॥ ३ ॥