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नू ष्टु॒त इ॑न्द्र॒ नू गृ॑णा॒न इषं॑ जरि॒त्रे न॒द्यो॒३॒॑ न पी॑पेः। अका॑रि ते हरिवो॒ ब्रह्म॒ नव्यं॑ धि॒या स्या॑म र॒थ्यः॑ सदा॒साः ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nū ṣṭuta indra nū gṛṇāna iṣaṁ jaritre nadyo na pīpeḥ | akāri te harivo brahma navyaṁ dhiyā syāma rathyaḥ sadāsāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नु। स्तु॒तः। इ॒न्द्र॒। नु। गृ॒णा॒नः। इष॑म्। ज॒रि॒त्रे। न॒द्यः॑। पी॒पे॒रिति॑ पीपेः। अका॑रि। ते॒। ह॒रि॒ऽवः॒। ब्रह्म॑। नव्य॑म्। धि॒या। स्या॒म॒। र॒थ्यः॑। स॒दा॒ऽसाः ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:24» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:12» मन्त्र:6 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (हरिवः) प्रशंसा करने योग्य भृत्यों से युक्त (इन्द्र) ऐश्वर्य्य की इच्छा करनेवाले ! (स्तुतः) शुद्ध व्यवहार से प्रशंसित (गृणानः) पुरुषार्थ की स्तुति करते हुए आप (जरित्रे) याचना करनेवाले वा जिसकी याचना नहीं की गई उसके लिये (नद्यः) नदियों के (न) सदृश (इषम्) अन्न को (नु) निश्चय (पीपेः) बढ़ाओ तिससे =उससे (ते) आपका हम लोगों से (धिया) व्यवहार को जाननेवाली बुद्धि वा उत्तम किये हुए कर्म्म से (नव्यम्) देश-देशान्तर वा द्वीप-द्वीपान्तर से नवीन (ब्रह्म) बहुत धन (अकारि) किया जाता है और आपके साथ (रथ्यः) बहुत रथ आदि से युक्त (सदासाः) भृत्यों के सहित हम लोग ऐश्वर्य्यवाले (नु) शीघ्र (स्याम) होवें ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! यदि आप लोग धन की इच्छा करो तो धर्म्मयुक्त पुरुषार्थ से योग्य क्रिया को निरन्तर करो ॥११॥ इस सूक्त में ब्रह्मचर्यवाले के पुत्र की प्रशंसा, अधर्म के त्याग से और उत्तम कर्म से बुद्धि और ऐश्वर्य की वृद्धि, नियमित आहार विहार, शत्रु का विजय और ज्येष्ठ कनिष्ठ का व्यवहार खा गया, इस से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥११॥ यह चौबीसवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे हरिव इन्द्र ! स्तुतो गृणानस्त्वं जरित्रे नद्यो नेषं नु पीपेस्तस्मात्तेऽस्माभिर्धिया नव्यं ब्रह्माकारि त्वया सह रथ्यः सदासा वयमैश्वर्य्यन्तो नु स्याम ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नु) अत्रोभयत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (स्तुतः) शुद्धव्यवहारेण प्रशंसितः (इन्द्र) ऐश्वर्यमिच्छुक (नु) (गृणानः) पुरुषार्थं स्तुवन् (इषम्) अन्नम् (जरित्रे) याचमानाऽयाचिताय वा (नद्यः) सरितः (न) इव (पीपेः) वर्द्धय (अकारि) क्रियते (ते) तव (हरिवः) प्रशंसितभृत्ययुक्त (ब्रह्म) महद्धनम् (नव्यम्) देशदेशान्तराद् द्वीपद्वीपान्तराद्वा (धिया) व्यवहारज्ञया प्रज्ञया सुष्ठु कृतेन कर्म्मणा वा (स्याम) भवेम (रथ्यः) बहुरथादियुक्ताः (सदासाः) भृत्यैः सहिताः ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यदि यूयं धनमिच्छत तर्हि धर्म्येण पुरुषार्थेन योग्यां क्रियां सततं कुरुतेति ॥११॥ अत्र ब्रह्मचर्यवतः पुत्रप्रशंसाऽधर्मत्यागेन सुकर्मणा प्रज्ञैश्वर्यधनं युक्ताऽहारविहारः शत्रुविजयो ज्येष्ठकनिष्ठव्यवहारश्चोक्तोऽत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥११॥ इति चतुर्विंशं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जर तुम्हाला धनाची इच्छा असेल तर धर्मयुक्त पुरुषार्थाने सतत योग्य क्रिया करा. ॥ ११ ॥