का सु॑ष्टु॒तिः शव॑सः सू॒नुमिन्द्र॑मर्वाची॒नं राध॑स॒ आ व॑वर्तत्। द॒दिर्हि वी॒रो गृ॑ण॒ते वसू॑नि॒ स गोप॑तिर्नि॒ष्षिधां॑ नो जनासः ॥१॥
kā suṣṭutiḥ śavasaḥ sūnum indram arvācīnaṁ rādhasa ā vavartat | dadir hi vīro gṛṇate vasūni sa gopatir niṣṣidhāṁ no janāsaḥ ||
का। सु॒ऽस्तु॒तिः। शव॑सः। सू॒नुम्। इन्द्र॑म्। अ॒र्वा॒ची॒नम्। राध॑से। आ। व॒व॒र्त॒त्। द॒दिः। हि। वी॒रः। गृ॒ण॒ते। वसू॑नि। सः। गोऽप॑तिः। निः॒ऽसिधा॑म्। नः॒। ज॒ना॒सः ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ग्यारह ऋचावाले चौबीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में ब्रह्मचर्यवान् के पुत्र की प्रशंसा कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ ब्रह्मचर्य्यवतः पुत्रप्रशंसामाह ॥
हे जनासो ! यो वीरो गृणते वसूनि ददिर्वर्त्तते स हि निष्षिधां नो गोपतिर्भवतु। का सुष्टुतिः शवसः सूनुमर्वाचीनमिन्द्रमाववर्त्तत्। को राधसे धनस्य योगमाववर्त्तत् ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात ब्रह्मचारी पुत्राची-प्रशंसा, अधर्माचा त्याग व उत्तम कर्माने बुद्धी व ऐश्वर्याची वृद्धी, नियमित आहार-विहार, शत्रूवर विजय, ज्येष्ठ /कनिष्ठाचा व्यवहार सांगितलेला आहे, यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.