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किमादम॑त्रं स॒ख्यं सखि॑भ्यः क॒दा नु ते॑ भ्रा॒त्रं प्र ब्र॑वाम। श्रि॒ये सु॒दृशो॒ वपु॑रस्य॒ सर्गाः॒ स्व१॒॑र्ण चि॒त्रत॑ममिष॒ आ गोः ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kim ād amatraṁ sakhyaṁ sakhibhyaḥ kadā nu te bhrātram pra bravāma | śriye sudṛśo vapur asya sargāḥ svar ṇa citratamam iṣa ā goḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

किम्। आत्। अम॑त्रम्। स॒ख्यम्। सखि॑ऽभ्यः। क॒दा। नु। ते॒। भ्रा॒त्रम्। प्र। ब्र॒वा॒म॒। श्रि॒ये। सु॒ऽदृशः॑। वपुः॑। अ॒स्य॒। सर्गाः॑। स्वः॑। न। चि॒त्रऽत॑मम्। इ॒षे॒। आ। गोः ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:23» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी मैत्रीकरणविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् वा राजन् ! (ते) आपके (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (भ्रात्रम्) भ्रातृसम्बन्धि कर्म्म के सदृश वर्त्तमान (सख्यम्) मित्रपने वा मित्र के कर्म्म का (कदा) कब (नु) शीघ्र (प्र, ब्रवाम) उपदेश देवें (आत्) इसके अनन्तर (किम्) किस (अमत्रम्) सुपात्र का आपके मित्रों के लिये उपदेश देवें और जो (सुदृशः) उत्तम प्रकार देखने योग्य (अन्य) इसकी (श्रिये) सेवा वा धन के लिये (आ, गोः) पृथिवी से लेकर (सर्गाः) सृष्टियाँ (वपुः) उत्तम रूपयुक्त शरीर की (इषे) इच्छा के लिये हैं, उनका विज्ञान (चित्रतमम्) अत्यन्त आश्चर्य्यरूप (स्वः) सुख के (न) सदृश वर्त्तमान है, ऐसा उपदेश देवें ॥६॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को चाहिये कि यथार्थवक्ता विद्वानों से मित्रता सदा ही करें, जिससे वे उत्तम उपदेश से सब को सृष्टिविद्या के जाननेवाले धर्म्मात्मा करके बहुत ही उत्तम विज्ञान को देकर सुखी करें ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मैत्रीकरणविषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् राजन् वा ! ते सखिभ्यो भ्रात्रं सख्यं कदा नु प्र ब्रवामाऽऽत् किममत्रं ते सखिभ्यः प्रब्रवाम। ये सुदृशोऽस्य श्रिये आ गोस्सर्गा वपुरिषे सन्ति तद्विज्ञानं चित्रतमं स्वर्ण वर्त्तत इति प्रब्रवाम ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (किम्) (आत्) आनन्तर्ये (अमत्रम्) सुपात्रम् (सख्यम्) (सखिभ्यः) (कदा) (नु) (ते) तव (भ्रात्रम्) भ्रातुरिदं कर्म्म तद्वद्वर्त्तमानम् (प्र) (ब्रवाम) उपदिशेम (श्रिये) सेवायै धनाय वा (सुदृशः) सुष्ठु द्रष्टव्यस्य (वपुः) सुरूपं शरीरम् (अस्य) (सर्गाः) सृष्टयः (स्वः) सुखम् (न) इव (चित्रतमम्) अतिशयेनाश्चर्य्यरूपम् (इषे) इच्छायै (आ) (गोः) पृथिव्यादेः ॥६॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्मनुष्यैराप्तानां विदुषां मित्रता सदैव कार्या यतस्ते सदुपदेशेन सर्वान् सृष्टिविद्याविदो धर्म्मात्मनः सम्पाद्यातीवोत्तमं विज्ञानं दत्वा सुखिनः कुर्य्युरिति ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी विद्वान माणसांबरोबर सदैव मैत्री करावी. ज्यामुळे ते उत्तम उपदेश करून सर्वांना सृष्टिविद्येचे ज्ञान देऊन, धर्मात्मा बनवून, उत्तम विज्ञान देऊन सर्वांना सुखी करतील. ॥ ६ ॥