यन्न॒ इन्द्रो॑ जुजु॒षे यच्च॒ वष्टि॒ तन्नो॑ म॒हान्क॑रति शु॒ष्म्या चि॑त्। ब्रह्म॒ स्तोमं॑ म॒घवा॒ सोम॑मु॒क्था यो अश्मा॑नं॒ शव॑सा॒ बिभ्र॒देति॑ ॥१॥
yan na indro jujuṣe yac ca vaṣṭi tan no mahān karati śuṣmy ā cit | brahma stomam maghavā somam ukthā yo aśmānaṁ śavasā bibhrad eti ||
यत्। नः॒। इन्द्रः॑। जु॒जु॒षे। यत्। च॒। वष्टि॑। तत्। नः॒। म॒हान्। क॒र॒ति॒। शु॒ष्मी। आ। चि॒त्। ब्रह्म॑। स्तोम॑म्। म॒घऽवा॑। सोम॑म्। उ॒क्था। यः। अश्मा॑नम्। शव॑सा। बिभ्र॑त्। एति॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ग्यारह ऋचावाले बाईसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथेन्द्रगुणानाह ॥
हे मनुष्या ! यद्य इन्द्रो नो जुजुषे यद्यो महांश्चाऽऽवष्टि यः शुष्मी मघवा सूर्य्योऽश्मानमिव शवसा ब्रह्म स्तोमं सोममुक्था चिद्बिभ्रत् सन् राज्यमेति तत् स नस्सुखं करतीति विजानीत ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, पृथ्वी, धारण-भ्रमण विद्वान, अध्यापक व उपदेशक यांच्या गुणांचे वर्णन केल्यामुळे या अर्थाची संगती पूर्व सूक्तार्थाबरोबर लावावी.