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यन्न॒ इन्द्रो॑ जुजु॒षे यच्च॒ वष्टि॒ तन्नो॑ म॒हान्क॑रति शु॒ष्म्या चि॑त्। ब्रह्म॒ स्तोमं॑ म॒घवा॒ सोम॑मु॒क्था यो अश्मा॑नं॒ शव॑सा॒ बिभ्र॒देति॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yan na indro jujuṣe yac ca vaṣṭi tan no mahān karati śuṣmy ā cit | brahma stomam maghavā somam ukthā yo aśmānaṁ śavasā bibhrad eti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। नः॒। इन्द्रः॑। जु॒जु॒षे। यत्। च॒। वष्टि॑। तत्। नः॒। म॒हान्। क॒र॒ति॒। शु॒ष्मी। आ। चि॒त्। ब्रह्म॑। स्तोम॑म्। म॒घऽवा॑। सोम॑म्। उ॒क्था। यः। अश्मा॑नम्। शव॑सा। बिभ्र॑त्। एति॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:22» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले बाईसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जो (इन्द्रः) अत्यन्त सुख का देनेवाला राजा (नः) हम लोगों की (जुजुषे) सेवा करता है (यत्, च) और जो (महान्) बड़ा ऐश्वर्यवाला (आ, वष्टि) कामना करता है (यः) जो (शुष्मी) अत्यन्त बलवान् (मघवा) अति उत्तम धनयुक्त राजा सूर्य्य (अश्मानम्) मेघ को जैसे वैसे (शवसा) बल से (ब्रह्म) बहुत धन वा अन्न (स्तोमम्) प्रशंसा करने योग्य (सोमम्) ओषधी आदि पदार्थसमूह से ऐश्वर्य्य और (उक्था) प्रशंसा करने योग्य वस्तुओं को (चित्) भी (बिभ्रत्) धारण करता हुआ राज्य को (एति) प्राप्त होता है (तत्) वह (नः) हम लोगों को सुख (करति) करता है, ऐसा जानो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य मेघ को धारण करता और नाश करता है, वैसे ही जो राजा श्रेष्ठों को धारण करता और दुष्टों को दण्ड देता है, वही हम लोगों के पालन करने योग्य है ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेन्द्रगुणानाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यद्य इन्द्रो नो जुजुषे यद्यो महांश्चाऽऽवष्टि यः शुष्मी मघवा सूर्य्योऽश्मानमिव शवसा ब्रह्म स्तोमं सोममुक्था चिद्बिभ्रत् सन् राज्यमेति तत् स नस्सुखं करतीति विजानीत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यः (नः) अस्मान् (इन्द्रः) परमसुखप्रदो राजा (जुजुषे) सेवते (यत्) यः (च) (वष्टि) कामयते (तत्) सः (नः) अस्मभ्यम् (महान्) (करति) कुर्य्यात् (शुष्मी) महाबलिष्ठः (आ) (चित्) अपि (ब्रह्म) महद्धनमन्नं वा (स्तोमम्) प्रशंसनीयम् (मघवा) परमपूजितधनः (सोमम्) ओषध्यादिगणैश्वर्य्यम् (उक्था) प्रशंसनीयानि वस्तूनि (यः) (अश्मानम्) मेघमिव राज्यम् (शवसा) बलेन (बिभ्रत्) धरन्त्सन् (एति) प्राप्नोति ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्य्यो मेघं धरति हन्ति च तथैव यो राजा श्रेष्ठान् दधाति दुष्टान् दण्डयति स एवाऽस्मान् पालयितुमर्हति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्र, पृथ्वी, धारण-भ्रमण विद्वान, अध्यापक व उपदेशक यांच्या गुणांचे वर्णन केल्यामुळे या अर्थाची संगती पूर्व सूक्तार्थाबरोबर लावावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! सूर्य जसा मेघाला धारण करतो व नाश करतो तसाच जो राजा श्रेष्ठांना धारण करतो व दुष्टांना दंड देतो तोच आमचे पालन करण्यायोग्य असतो. ॥ १ ॥