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आ या॒त्विन्द्रो॑ दि॒व आ पृ॑थि॒व्या म॒क्षू स॑मु॒द्रादु॒त वा॒ पुरी॑षात्। स्व॑र्णरा॒दव॑से नो म॒रुत्वा॑न्परा॒वतो॑ वा॒ सद॑नादृ॒तस्य॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yātv indro diva ā pṛthivyā makṣū samudrād uta vā purīṣāt | svarṇarād avase no marutvān parāvato vā sadanād ṛtasya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। या॒तु॒। इन्द्रः॑। दि॒वः। आ। पृ॒थि॒व्याः। म॒क्षु। स॒मु॒द्रात्। उ॒त। वा॒। पुरी॑षात्। स्वः॑ऽनरात्। अव॑से। नः॒। म॒रुत्वा॑न्। प॒रा॒ऽवतः॑। वा॒। सद॑नात्। ऋ॒तस्य॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:21» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:5» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे सूर्य (आ, दिवः) प्रकाश से (पृथिव्याः) भूमि से (उत) और (समुद्रात्) अन्तरिक्ष से (वा) वा (पुरीषात्) जल से (परावतः) दूर देश से (ऋतस्य) सत्य कारण के (सदनात्) स्थान से (वा) वा हम संसारी जनों की रक्षा आदि के लिये (मक्षू) शीघ्र प्राप्त होता है, वैसे ही (स्वर्णरात्) सूर्य्य के सदृश नायक से (नः) हम लोगों के (अवसे) रक्षण आदि के लिये (मरुत्वान्) वायुवान् पदार्थ के सदृश प्रशंसित पुरुषों से युक्त होता हुआ (इन्द्रः) सूर्य के समान राजा (आ, यातु) प्राप्त हो ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जैसे सूर्य्य अन्तरिक्ष, प्रकाश, भूमि, जल और कार्य्य जगत् को व्याप्त होकर सब की रक्षा करता है, वैसे ही प्रतापी और उत्तम सहाययुक्त होकर और हम लोग की उत्तम प्रकार रक्षा करके प्रकाशित हूजिये ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

यथा सूर्य्य आ दिवः पृथिव्या उत समुद्राद्वा पुरीषात् परावत ऋतस्य सदनाद्वा नोऽवसे मक्ष्वायाति तथैव स्वर्णरान्नोऽवसे मरुत्वान्त्सन्निन्द्र आ यातु ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (यातु) प्राप्नोतु (इन्द्रः) सूर्य इव राजा (दिवः) प्रकाशात् (आ) (पृथिव्याः) भूमेः (मक्षू) शीघ्रम्। मक्ष्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०२.१५) (समुद्रात्) अन्तरिक्षात् (उत) (वा) (पुरीषात्) उदकात् । पुरीषमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (स्वर्णरात्) स्वरादित्य इव नरान्नायकात् (अवसे) रक्षणाद्याय (नः) अस्माकम् (मरुत्वान्) वायुवानिव प्रशस्तपुरुषयुक्तः (परावतः) दूरदेशात् (वा) (सदनात्) स्थानात् (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! यथा सूर्य्योऽन्तरिक्षं प्रकाशं भूमिञ्जलं कार्य्यं जगच्च व्याप्य सर्वं रक्षति तथैव प्रतापी सुसहायो भूत्वाऽस्मान् संरक्ष्य प्रकाशितो भव ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा! जसा सूर्य, अंतरिक्ष, प्रकाश, भूमी, जल व कार्य जगतामध्ये व्याप्त असतो व सर्वांचे रक्षण करतो तसेच पराक्रमी व उत्तम सहाय्ययुक्त बनून आमचे उत्तम प्रकारे रक्षण करून प्रकाशित हो. ॥ ३ ॥