आ या॒त्विन्द्रोऽव॑स॒ उप॑ न इ॒ह स्तु॒तः स॑ध॒माद॑स्तु॒ शूरः॑। वा॒वृ॒धा॒नस्तवि॑षी॒र्यस्य॑ पू॒र्वीर्द्यौर्न क्ष॒त्रम॒भिभू॑ति॒ पुष्या॑त् ॥१॥
ā yātv indro vasa upa na iha stutaḥ sadhamād astu śūraḥ | vāvṛdhānas taviṣīr yasya pūrvīr dyaur na kṣatram abhibhūti puṣyāt ||
आ। या॒तु॒। इन्द्रः॑। अव॑से। उप॑। नः॒। इ॒ह। स्तु॒तः। स॒ध॒ऽमात्। अ॒स्तु॒। शूरः॑। व॒वृ॒धा॒नः। तवि॑षीः। यस्य॑। पू॒र्वीः। द्यौः। न। क्ष॒त्रम्। अ॒भिऽभू॑ति। पुष्या॑त् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ग्यारह ऋचावाले इक्कीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथेन्द्रपदवाच्यराजगुणानाह ॥
हे विद्वांसो ! यस्य राज्ञो द्यौर्न पूर्वीस्तविषीः स्युर्द्यौर्नाऽभिभूति क्षत्रं पुष्यात् स वावृधानः शूरः स्तुत इन्द्रो नोऽस्माकमवस इहोपायात्वस्माभिः सधमादस्तु ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, राजा व प्रजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.