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सु॒कर्मा॑णः सु॒रुचो॑ देव॒यन्तोऽयो॒ न दे॒वा जनि॑मा॒ धम॑न्तः। शु॒चन्तो॑ अ॒ग्निं व॑वृ॒धन्त॒ इन्द्र॑मू॒र्वं गव्यं॑ परि॒षद॑न्तो अग्मन् ॥१७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sukarmāṇaḥ suruco devayanto yo na devā janimā dhamantaḥ | śucanto agniṁ vavṛdhanta indram ūrvaṁ gavyam pariṣadanto agman ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒ऽकर्मा॑णः। सु॒ऽरुचः॑। दे॒व॒ऽयन्तः॑। अयः॑। न। दे॒वाः। जनि॑म। धम॑न्तः। शु॒चन्तः॑। अ॒ग्निम्। व॒वृ॒धन्तः॑। इन्द्र॑म्। ऊ॒र्वम्। गव्य॑म्। प॒रि॒ऽसद॑न्तः। अ॒ग्म॒न्॥१७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:2» मन्त्र:17 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजा और प्रजाजन ! आप लोगों (अयः) सुवर्ण को (धमन्तः) कंपाते हुओं के (न) सदृश (देवाः) विद्वान् लोग (जनिम) जन्म की (देवयन्तः) कामना करते हुए (सुकर्माणः) जिनके उत्तम कर्म (सुरुचः) वा श्रेष्ठ प्रीति वह (शुचन्तः) पवित्र आचरण को करते और कराते हुए (अग्निम्) प्रसिद्ध अग्नि को (ववृधन्तः) बढ़ाते हैं (परिषदन्तः) और सभा का आचरण करते हुए (ऊर्वम्) हिंसा करनेवाली (इन्द्रम्) बिजुली को (गव्यम्) वाणीमय शास्त्र को (अग्मन्) प्राप्त होते हैं, वैसा ही आप लोग आचरण करो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। सब मनुष्यों को चाहिये कि धर्मयुक्त कर्मों को करके विद्या और सभा में प्रीति उत्पन्न करके पवित्रता की कामना करते हुए विद्या और जन्म से बढ़नेवाले बिजुली आदि की विद्या को बढ़ाते हुए चक्रवर्त्ती राज्य करके आनन्द का निरन्तर भोग करें ॥१७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजप्रजाजना ! भवन्तोऽयो धमन्तो न देवा जनिम देवयन्तः सुकर्माणः सुरुचः शुचन्तोऽग्निं ववृधन्तः परिषदन्त ऊर्वमिन्द्रं गव्यमग्मंस्तथैव यूयमाचरत ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुकर्माणः) शोभनानि कर्माणि येषान्ते (सुरुचः) सुष्ठु रुचः प्रीतयो येषान्ते (देवयन्तः) कामयमानाः (अयः) सुवर्णम् (न) इव (देवाः) विद्वांसः (जनिम) जन्म। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (धमन्तः) कम्पयन्तः (शुचन्तः) पवित्राचरणं कुर्वन्तः कारयन्तः (अग्निम्) प्रसिद्धपावकम् (ववृधन्तः) वर्धयन्ति (इन्द्रम्) विद्युतम् (ऊर्वम्) हिंसकम् (गव्यम्) गोमयं वाङ्मयम् (परिषदन्तः) परिषदमाचरन्तः (अग्मन्) गच्छन्ति ॥१७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। सर्वैर्मनुष्यैर्धर्म्याणि कर्माणि कृत्वा विद्यायां सभायां च रुचिं जनयित्वा पवित्रतां कामयमाना विद्याजन्मना वर्धमाना विद्युदादिविद्यामुन्नयन्तस्साम्राज्यं कृत्वानन्दः सततं भोक्तव्यः ॥१७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. सर्व माणसांनी धर्मयुक्त कर्म करून विद्या व सभेत रुची उत्पन्न करून पवित्रतेची कामना करून विद्युत इत्यादींची विद्या वाढवीत चक्रवर्ती राज्य करून आनंदाचा निरंतर भोग करावा ॥ १७ ॥